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________________ प्रत्यक्षप्रमाणमीमांसा २६७ ज्ञानमें ही होता है । शब्द-संसृष्टज्ञान नियमसे पदार्थका ग्राहक नहीं होता। अनेक विकल्पकज्ञान ऐसे होते है, जिनके विषयभूत पदार्थ विद्यमान नहीं होते, जैसे शेखचिल्लीकी 'मैं राजा हूँ' इत्यादि कल्पनाओंके । जो विकल्पज्ञान निर्विकल्पकसे उत्पन्न होता है, मात्र विकल्पवासनासे नहीं, उस सविकल्पकमे जो विशदता और अर्थनियतता देखी जाती है, वह उस विकल्पका अपना धर्म नहीं है, किन्तु निर्विकल्पमे उधार लिया हुआ है। निविकल्पकके अनन्तर क्षणमे ही सविकल्पक उत्पन्न होता है, अतः निर्विकल्पककी विशदता सविकल्पकमें प्रतिभासित होने लगतो है और इस तरह सविकल्पक भी निर्विकल्पककी विशदताका स्वामा बनकर व्यवहारमे प्रत्यक्ष कहा जाता है। ___ परन्तु जैन दार्गनिक परंपरामे निराकार निर्विकल्पक दर्शनको प्रमाणकोटिसे वर्भूित ही रखा है और निश्चयात्मक सविकल्पक ज्ञानको ही प्रमाण मानकर विशदज्ञानको प्रत्यक्षकोटिम लिया है। बौद्धका निविकल्पकज्ञान विषय-विपयोसन्निपातके अनन्तर होने वाले मामान्यावभासी अनाकार दर्शनके समान है। यह अनाकार दर्शन इतना निर्बल होता है कि इमसे व्यवहार तो दूर रहा किन्तु पदार्थका निश्चय भी नहीं हो पाता । अत: उसको स्पष्ट या प्रमाण मानना किमी भी तरह उचित नहीं है । विशदता और निश्चयपना विकल्पका अपना धर्म है और वह नानावरणके क्षयोपशमके अनुसार इसमें पाया जाता है । इमो अभिप्रायका मूचन करनेके लिए अकलंकदेवने 'अञ्जसा' और 'साकार' पद प्रत्यक्षके लक्षणमें दिये है। जिन विकल्पज्ञानोंका विषयभूत पदार्थ बाह्यमे नहीं मिलता वे विकल्पाभास है, प्रत्यक्ष नहीं। जैसे गन्दगन्य निर्विकल्पकसे गब्दसंमृष्ट विकल्प उत्पन्न हो जाता है वैसे यदि शब्दशून्य अर्थमे भी सीधा विकल्प उत्पन्न हो तो क्या बाधा है ? यद्यपि ज्ञानकी उत्पत्तिमें पदार्थकी असाधारण कारणता नहीं है। ज्ञात होता है कि वेदकी प्रमाणताका खण्डन करनेके विचारसे बौद्धोंने
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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