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जैनदर्शन अकलंकदेव' ने 'न्यायविनिश्चिय' में स्पष्ट ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा है। उनके लक्षणमें 'साकार' और 'अञ्जसा' पद भी अपना विशेष महत्त्व रखते हैं; अर्थात् साकारज्ञान जब अञ्जसा स्पष्ट अर्थात् परमार्थरूपसे विशद हो तब उसे प्रत्यक्ष कहते है । वैशद्य का लक्षण अकलंकदेवने स्वयं लघीयस्त्रयमें इस तरह किया है
"अनुमानाद्यतिरेकेण विशेपप्रतिभासनम् ।
तद्वैशचं मनं बुद्धेरवैशद्यमतः परम् ॥४॥" अर्थात् अनुमानादिसे अधिक नियत देश, काल, और आकाररूपमें प्रचुरतर विशेपोंके प्रतिभासनको वाद्य कहते है। दूसरे शब्दोंमे जिस ज्ञानमें किसी अन्य ज्ञानकी सहायता अपेक्षित न हो वह ज्ञान विशद कहलाता है। जिस तरह अनुमानादि ज्ञान अपनी उत्पत्तिमें लिंगज्ञान, व्याप्तिस्मरण आदिकी अपेक्षा रखते है, उस तरह प्रत्यक्ष अपनी उत्पत्तिमें किसी अन्य ज्ञानको आवश्यकता नहीं रखता । यही अनुमानादिसे प्रत्यक्ष में अतिरेक-अधिकता है।
यद्यपि बौद्ध भी विशदज्ञानको प्रत्यक्ष कहते है; पर वे केवल निविकल्पक ज्ञानको ही प्रत्यक्षको सीमामे रखते है। उनका यह अभिप्राय है कि स्वलक्षणवस्तु परमार्थतः शब्दशन्य है । अतः उससे उत्पन्न होनेवाला प्रत्यक्ष भी शब्दशून्य ही होना चाहिये । शब्दका अर्थके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। शब्दके अभावमे भी पदार्थ अपने स्वरूपमें रहता है और पदार्थ के न होने पर भी यथेच्छ दाब्दोंका प्रयोग देखा जाता है । शब्दका प्रयोग संकेत और विवक्षाके अधीन है । अतः परमार्थसत् वस्तुसे उत्पन्न होनेवाले निविकल्पक प्रत्यक्षसे शब्दकी सम्भावना नहीं है। शब्दका प्रयोग तो विकल्पवासनाके कारण पूर्वोक्त निर्विकल्पक ज्ञानसे उत्पन्न होनेवाले सविकल्पक १. 'प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमञ्जसा'-न्यायवि० श्लो०३। २. 'प्रत्यक्षं कल्पनापाढं वैद्यतेऽतिपरिस्फुटम् ।' -तत्त्वसं० का० १२३४ ।