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प्रमाणमीमांसा
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की अवस्थाओंका अनेक रूपसे विवेचन मिलता है,' जो मतिज्ञानके विविध आकार और प्रकारोंका निर्देश मात्र है । वह निर्देश भी तत्त्वाधिगमके उपायोंके रूपमें है । जिन तत्त्वोंका श्रद्धान और ज्ञान करके मोक्षमार्गमें जुटा जा सकता है उन तत्त्वोंका अधिगम ज्ञानसे ही तो संभव है । यही ज्ञान प्रमाण और नयके रूपसे अधिगमके उपायोंको दो रूपमें विभाजित कर देता है । यानी तत्त्वाधिगमके दो मूल भेद होते हैं - प्रमाण और नय । इन्हीं पाँच ज्ञानोंका प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो प्रमाणोंके रूपमें विभाजन भी आगमिक परंपरामें पहले से ही रहा है: किन्तु यहाँ प्रत्यक्षता और परोक्षताका आधार भी बिलकुल भिन्न है । जो ज्ञान स्वावलम्बी है - इन्द्रिय और मनकी सहायताकी भी अपेक्षा नहीं करता, वह आत्ममात्रसापेक्ष ज्ञान प्रत्यक्ष है और इन्द्रिय तथा मनसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान परोक्ष । इस तरह आगमिक क्षेत्रके सम्यक् - मिथ्या विभाग और प्रत्यक्ष-परोक्ष विभागके आधार दार्शनिक क्षेत्र से बिलकुल ही जुदे प्रकारके हैं । जैन दार्शनिकोंके सामने उपर्युक्त आगमिक परंपराको दार्शनिक ढाँचे में ढालनेका महान् कार्यक्रम था, जिसे सुव्यवस्थित रूपमें निभानेका प्रयत्न किया
गया 1
प्रमाणका स्वरूप :
प्रमाणका सामान्यतया व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है - " प्रमीयते येन तत्प्रमाणम्” अर्थात् जिसके द्वारा पदार्थोंका ज्ञान हो उस द्वारका नाम प्रमाण है दूसरे शब्दों में जो प्रमाका साधकतम करण हो वह प्रमाण है । इस सामान्यनिर्वचन में कोई विवाद न होने पर भी उस द्वारमें विवाद । नैयायिकादि प्रमामें साधकतम इन्द्रिय और सन्निकर्षको मानते हैं जब कि जैन और बौद्ध ज्ञानको ही प्रमामें साधकतम कहते हैं । जैनदर्शनकी दृष्टि है
१. त० सू० १ १३ । नन्दी प्र० मति० गा० ८० ।