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आस्रवतत्त्व-निरूपण हिंसाके मुख्य हेतुओंमें प्रमादका प्रमुख स्थान है। दूसरे प्राणीका घात हो या न हो, प्रमादी व्यक्तिको हिंसाका दोष सुनिश्चित है। प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले अप्रमत्त साधकके द्वारा बाह्य हिंसा होनेपर भी वह अहिंसक ही है। अतः प्रमाद हिंसाका मुख्य द्वार है। इसीलिए भगवान् महावीरने बार-बार गौतम गणधरको चेताया था कि “समयं गोयम मा पमायए" अर्थात् गौतम, क्षणभर भी प्रमाद न कर ।
कषाय :
आत्माका स्वरूप स्वभावतः शान्त और निर्विकारी है। पर क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कपायें उसे कस देती है और स्वरूपसे च्युत कर देती है। ये चारों आत्माकी विभाव दशाएँ है । क्रोध काय द्वेपरूप है। यह द्वेषका कारण और द्वेषका कार्य है। मान यदि क्रोधको उत्पन्न करता है तो द्वेषरूप है । लोभ रागरूप है । माया यदि लोभको जागृत करती है तो रागरूप है । तात्पर्य यह कि राग, द्वेप और मोहको दोष-त्रिपुटीमें कषायका भाग ही मुख्य है। मोहरूपी मिथ्यात्वके दूर हो जानेपर सम्यग्दृष्टिको राग और द्वेष बने रहते है। इनमें लोभ कषाय तो पद, प्रतिष्ठा, यशकी लिप्सा और संघवृद्धि आदिके रूपमे बड़े-बड़े मुनियोंको भी स्वरूपस्थित नहीं होने देती। यह राग-द्वेपरूप द्वन्द ही समस्त अनर्थोका मूल है । यही प्रमुख आम्रव है। न्यायसूत्र, गीता और पाली पिटकोंमें भी इस द्वन्द्वको पापका मूल बताया है । जैनागमोंका प्रत्येक वाक्य कषाय-शमनका ही उपदेश देता है। जैन उपासनाका आदर्श परम निर्ग्रन्थ दशा है । यही कारण है कि जैन मूर्तियां वीतरागता और अकिञ्चनताको प्रतीक होती है। न उनमें द्वेषका साधन आयुध है और न रागका आधार स्त्री आदिका साहचर्य ही। वे सर्वथा निर्विकार होकर परमवीतरागता और अकिञ्चनताका पावन संदेश देती हैं।
इन कषायोंके सिवाय हास्य, रति, अरति, शोक, भय जुगुप्सा,