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________________ २२८ जैनदर्शन होता है जिससे न तो वह सकलचारित्र धारण कर पाता है और न देशचारित्र हो। ___ क्रोधादि कषायोंके चार भेद चारित्रको रोकनेको शक्तिकी अपेक्षासे भी होते है१. अनन्तानुबन्धी-अनन्त संसारका बन्ध करानेवाली, स्वरूपाचरण चारित्र न होने देनेवाली, पत्थरकी रेखाके समान कषाय । यह मिथ्यात्वके साथ रहती है। २. अप्रत्याख्यानावरण-देशचारित्र अर्थात् श्रावकके अणुव्रतोंको रोकने वाली, मिट्टीको रेखाके समान कषाय । ३. प्रत्याख्यानावरण-सकलचारित्रको न होने देनेवाली, धूलिकी रेखाके समान कषाय । ४. संज्वलन कषाय-पूर्ण चारित्रमें किंचित् दोष उत्पन्न करनेवाली, जलरेखाके समान कषाय । इसके उदयसे यथाख्यात चारित्र नहीं हो पाता। इस तरह इन्द्रियोंके विषयोंमें तथा प्राणिविषयक असंयममें निरगल प्रवृत्ति होनेसे कर्मोका आस्रव होता है। प्रमाद: असावधानीको प्रमाद कहते हैं । कुशल कर्मोमें अनादर होना प्रमाद है । पाँचों इन्द्रियोंके विषयमें लीन होनेके कारण; राजकथा, चोरकथा, स्त्रीकथा और भोजनकथा आदि विकथाओंमें रस लेनेके कारण; क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायोंसे कलुषित होनेके कारण; तथा निद्रा और प्रणयमें मग्न होनेके कारण कुशल कर्त्तव्य मार्गमें अनादरका भाव उत्पन्न होता है । इस असावधानीसे कुशलकर्मके प्रति अनास्था तो होती ही है साथ-ही-साथ हिंसाको भूमिका भी तैयार होने लगती है।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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