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________________ १९२ जैनदर्शन प्रदेशमें सम्पूर्ण गुणोंकी सत्ताका आधार होता है । ____इस विवेचनका यह फलितार्थ है कि एक द्रव्य अनेक उत्पाद और व्ययोंका और गुण रूपमे ध्रौव्यका युगपत् आधार होता है। यह अपने विभिन्न गुण और पर्यायोंमें जिस प्रकारका वास्तविक तादात्म्य रखता है, उस प्रकारका तादात्म्य दो द्रव्योंमें नहीं हो सकता। अतः अनेक विभिन्नसत्ताक परमाणुओंके बन्ध-कालमें जो स्कन्ध-अवस्था होती है, वह उन्हीं परमाणुओंके सदृश परिणमनका योग है, उनमें कोई एक नया द्रव्य नहीं आता, अपितु विशिष्ट अवस्थाको प्राप्त वे परमाणु ही विभिन्न स्कन्धोंके रूपमें व्यवहृत होते हैं। यह विशिष्ट अवस्था उनकी कथञ्चित् एकत्वपरिणति रूप है। कार्योत्पत्ति विचार सांख्यका सत्कार्यवादः कार्योत्पत्तिके सम्बन्धमें मुख्यतया तीन वाद हैं । पहला सत्कार्यवाद, दूसरा असत्कार्यवाद और तीसरा सत्-असत्कार्यवाद । सांख्य सत्कार्यवादी हैं । उनका यह आशय हैं कि प्रत्येक कारणमें उससे उत्पन्न होनेवाले कार्योकी सत्ता है, क्योंकि सर्वथा असत् कार्यकी खरविपाणकी तरह उत्पत्ति नहीं हो सकती । गेहूँके अंकुरके लिए गेहूँके वीजको ही ग्रहण किया जाता है, यवादिके बीजको नहीं। अतः ज्ञात होता है कि उपादानमें कार्यका सद्भाव है। जगत्में सब कारणोंसे सब कार्य पैदा नहीं होते, किन्तु प्रतिनियत कारणोंसे प्रतिनियत कार्य होते है। इसका सीधा अर्थ है कि जिन कारणोंमें जिन कार्योंका सद्भाव है, वे ही उनसे पैदा होते हैं, अन्य नहीं । इसी तरह समर्थ भी कारण शक्य ही कार्यको पैदा करता है, अशक्यको नहीं। १ "असदकरणादुपादान ग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात् । कारणकार्यविभागादविभागात् वैश्वरूप्यस्य ॥" -सांख्यका०९।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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