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दो शब्द
भ० महावीर तीर्थङ्कर थे, दर्शनङ्कर नहीं। वे उस तीर्थ अर्थात् तरनेका उपाय बताना चाहते थे, जिससे व्यक्ति निराकुल और स्वस्थ बनकर समाज, देश और विश्वकी सुन्दर इकाई हो सकता है। अतः उनके उपदेशको धारा वस्तुस्वरूपकी अनेकान्तरूपता तथा व्यक्ति-स्वातन्त्र्यकी चरम प्रतिष्ठापर आधारित थी। इसीका फल है कि जैनदर्शनका प्रवाह मनःशुद्धि और वचनशुद्धि मूलक अहिंसक आचारको पूर्णताको पानेकी ओर है। उसने परमतमें दूषण दिखाकर भी उनका वस्तुस्थितिके आधारसे समन्वयका मार्ग भी दिखाया है। इस तरह जैनदर्शनकी व्यावहारिक उपयोगिता जीवनका यथार्थ वस्तुस्थितिके आधारसे बुद्धिपूर्वक संवादी बनानेमें है और किसी भी सच्चे दार्शनिकका यही उद्देश्य होना भी चाहिये।
प्रस्तुत ग्रन्थमें मैंने इसी भावसे 'जैनदर्शन'को मौलिकदृष्टि समझानेका प्रयत्न किया है। इसके प्रमाण, प्रमेय और नयकी मीमांसा तथा स्याद्वादविचार आदि प्रकरणोंमें इतर दर्शनोंकी समालोचना तथा आधुनिक भौतिकवाद और विज्ञानकी मूल धाराओंका भी यथासंभव आलोचनप्रत्यालोचन करनेका प्रयत्न किया है। जहाँ तक परमत-खण्डनका प्रश्न है, मैंने उन-उन मतोंके मल ग्रन्थोंसे वे अवतरण दिये है या उनके स्थलका निर्देश किया है, जिससे समालोच्य पूर्वपक्षके सम्बन्धमे भ्रान्ति न हो।
इस ग्रन्थमें १२ प्रकरण है। इनमें संक्षेपरूपसे उन ऐतिहासिक और तुलनात्मक विकास-बीजोंकी बतानेकी चेष्टा की गई है, जिनसे यह सहज समझमें आ सके कि तीर्थङ्करकी वाणीके बीज किन-किन परिस्थियोंमें कैसे-कैसे अङ्कुरित, पल्लवित, पुष्पित और सफल हुए। फालेत ।
१. प्रथम प्रकरण-'पृष्ठभूमि और सामान्यावलोकन'में इस कर्मभूमिके आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेवसे लेकर अन्तिम तीर्थङ्कर महावीर तक तथा उनसे आगेके आचार्यों तक जैन तत्त्वकी धारा किस रूपमें प्रवाहित हुई