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जैनदर्शन
है कि यदि इसका उचित रूपमें और उचित मात्रामें उपयोग नहीं किया गया, तो यह समाज - शरीरको सड़ा देगी और उसे विस्फोटके पास पहुँचा देगी ।
जैन तीर्थङ्करोंने मनुष्यकी अहङ्कारमूलक प्रवृत्ति और उसके स्वार्थी वासनामय मानसका स्पष्ट दर्शन कर उन तत्त्वोंकी ओर प्रारम्भसे ध्यान दिलाया है, जिनसे इसकी दृष्टिकी एकाङ्गिता निकलकर उसमें अनेकाङ्गिता आती है और वह अपनी दृष्टिकी तरह सामनेवाले व्यक्तिकी दृष्टिका भी सन्मान करना सोखती है, उसके प्रति सहिष्णु होती है, अपनी तरह उसे भी जीवित रहने और परमार्थ होनेकी अधिकारिणी मानती है । दृष्टिमें इस आत्मौपम्य भावके आ जाने पर उसकी भाषा बदल जाती है, उसमें स्वमतका दुर्दान्त अभिनिवेश हटकर समन्वयशीलता आती है । उसकी भाषामें परका तिरस्कार न होकर उसके अभिप्राय, विवक्षा और अपेक्षा दृष्टिको समझने की सरलवृत्ति आ जाती है । और इस तरह भाषामें से आग्रह यानी एकान्तका विष दूर होते ही उसकी स्याद्वादामृतगर्भिणी वाक्सुधासे चारों ओर संवाद, सुख और शान्तिकी सुषमा सरसने लगती है, सब ओर संवाद ही संवाद होता है, विसंवाद, विवाद और कलहकण्टक उन्मूल हो जाते हैं । इस मनः शुद्धि यानी अनेकान्तदृष्टि और वचनशुद्धि अर्थात् स्याद्वादमय वाणीके होते ही उसके जीवन-व्यवहारका नक्शा ही बदल जाता है, उसका कोई भी आचरण या व्यवहार ऐसा नहीं होता, जिससे कि दूसरेके स्वातन्त्र्यपर आँच पहुँचे । तात्पर्य यह कि वह ऐसे महात्मत्व की ओर चलने लगता है, जहाँ मन, वचन और कर्मकी एकसूत्रता होकर स्वस्थ व्यक्तित्वका निर्माण होने लगता है । ऐसे स्वस्थ स्वोदयी व्यक्तियोंसे ही वस्तुतः सर्वोदयो नव समाजका निर्माण हो सकता है और तभी विश्वशान्तिको स्थायी भूमिका आ सकती है ।
१. “मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्” ।