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________________ १८२ जैनदर्शन एक ही द्रव्य जिस प्रकार अनेक गुणोंका अखण्ड पिण्ड है, उसी तरह जो द्रव्य सक्रिय हैं उनमें होनेवाली क्रिया भी उसी द्रव्यको पर्याय है, स्वतंत्र नहीं है । क्रिया या कर्म क्रियावान्से भिन्न अपना अस्तित्व नहीं रखते । 1 इसी तरह पृथ्वीत्वादि भिन्न द्रव्यवर्ती सामान्य सदृशपरिणामरूप ही हैं । कोई एक, नित्य और व्यापक सामान्य अनेक द्रव्योंमें मोतियोंमें सूतकी तरह पिरोया हुआ नहीं है । जिन द्रव्योंमें जिस रूपसे सादृश्य प्रतीत होता है, उन द्रव्योंका वह सामान्य मान लिया जाता है । वह केवल बुद्धिकल्पित भी नहीं है, किन्तु सादृश्य रूपसे वस्तुनिष्ठ है; और वस्तुकी तरह ही उत्पादविनाशध्रौव्यशाली है । समवाय सम्बन्ध है । यह जिनमें होता है उन दोनों पदार्थोकी हो पर्याय है। ज्ञानका सम्बन्धका आत्मामें माननेका यही अर्थ है कि ज्ञान और उसका सम्बन्ध आत्माकी ही सम्पत्ति है, आत्मासे भिन्न उसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । कोई भी सम्बन्ध अपने सम्बन्धियोंकी अवस्थारूप ही हो सकता है । दो स्वतन्त्र पदार्थोंमें होनेवाला संयोग भी दोमें न रहकर प्रत्येक में रहता है, इसका संयोग उसमें और उसका संयोग इसमें । याने संयोग प्रत्येकनिष्ठ होकर भी दोके द्वारा अभिव्यक्त होता है । विशेष पदार्थको स्वतन्त्र माननेकी आवश्यकता इसलिए नहीं है कि जब सभी द्रव्योंका अपना-अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है, तब उनमें विलक्षणप्रत्यय भी अपने निजी व्यक्तित्वके कारण ही हो सकता है । जिस प्रकार विशेष पदार्थोंमें विलक्षण प्रत्यय उत्पन्न करनेके लिए अन्य विशेष पदार्थोंकी आवश्यकता नहीं है, वह स्वयं उनके स्वरूपसे ही हो जाता है, उसी तरह द्रव्यों के निजरूपसे ही विलक्षणप्रत्यय माननेमें कोई बाधा नहीं है । इसी तरह प्रत्येक द्रव्यकी पूर्वपर्याय उसका प्रागभाव है, उत्तरपर्याय प्रध्वंसाभाव है, प्रतिनियत निजस्वरूप अन्योन्याभाव है और असंसर्गीयरूप अत्यन्ताभाव है । अभाव भावान्तररूप होता है, वह अपने में कोई स्वतन्त्र
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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