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जीवद्रव्य विवेचन
१८१ स्वतन्त्र पदार्थ माना गया है। 'अनुगताकार' प्रत्ययसे पर और अपर रूपसे अनेक प्रकारके सामान्य माने गये हैं । 'अपृथक्सिद्ध' पदार्थोके सम्बन्ध स्थापनके लिए 'समवाय' की आवश्यकता हुई । नित्य परमाणुषोंमें शुद्ध आत्माओंमें, तथा मुक्त आत्माओंके मनोंमें परस्पर विलक्षणताका बोध कराने के लिए प्रत्येक नित्य द्रव्य पर एक एक विशेष पदार्थ माना गया है । कार्योत्पत्तिके पहले वस्तुके अभावका नाम प्रागभाव है । उत्पत्तिके बाद होनेवाला विनाश प्रध्वंसाभाव है। परस्पर पदार्थोके स्वरूपका अभाव अन्योन्याभाव और त्रैकालिक संसर्गका निपेध करनेवाला अत्यन्ताभाव होता है । इस तरह जितने प्रकारके प्रत्यय पदार्थों में होते है, उतने प्रकारके पदार्थ वैशेपिकने माने है । वैशेपिकको 'सम्प्रत्ययोपाध्याय' कहा गया है । उसका यही अर्थ है कि वैशेपिक प्रत्ययके आधारसे पदार्थको कल्पना करनेवाला उपाध्याय है ।
परन्तु विचार कर देखा जाय तो गुण, क्रिया, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव ये सब द्रव्यको पर्यायें ही है। द्रव्यके स्वरूपसे बाहर गुणादिको कोई सत्ता नहीं है । द्रव्यका लक्षण है गुणपर्यायवाला होना। ज्ञानादिगुणोंका आत्मासे तथा रूपादि गुणोंका पुद्गलसे पृथक् अस्तित्व न तो देखा ही जाता है, और न युक्तिसिद्ध हो है । गुण और गुणीको, क्रिया और क्रियावान्को, सामान्य और सामान्यवान्को, विशेष और नित्य द्रव्योंको स्वयं वैशेपिक अयुतसिद्ध मानते है, अर्थात् उक्त पदार्थ परस्पर पृथक् नहीं किये जा सकते । गुण आदिको छोड़कर द्रव्यको अपनी पृथक् सत्ता क्या है ? इसी तरह द्रव्यके बिना गुणादि निराधार कहाँ रहेंगे? इनका द्रव्यके साथ कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध है। इसीलिए कहीं "गुणसन्द्रावो द्रव्यम्” यह भी द्रव्यका लक्षण मिलता है। १. "गुणपर्ययवद्र्व्य म् ।"-तत्त्वार्थमृत्र ५।३८ । २. “अन्वर्थ खल्वपि निर्वचनं गुणसन्द्रावो द्रव्यमिति ।"
-पात० महाभाय ५.११११९।