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जैनदर्शन
द्रव्य है । यद्यपि पुद्गलादि द्रव्योंमें भी परस्पर होनाधिक रूपमें एक दूसरेको अवकाश देना देखा जाता है, जैसे कि टेबिल पर किताब या बर्तन में पानी आदिका, फिर भी समस्त द्रव्योंको एकसाथ अवकाश देनेवाला आकाश ही हो सकता है। इसके अनन्त प्रदेश हैं । इसके मध्य भागमें चौदह राजू ऊँचा पुरुषाकार लोक है, जिसके कारण आकाश लोकाकाश और अलोकाकाशके रूपमें विभाजित हो जाता है । लोकाकाश असंख्यात प्रदेशोंमें है, शेप अनन्त अलोक है, जहाँ केवल आकाश हो आकाश है । यह निष्क्रिय है और रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्दादिसे रहित होनेके कारण अमूर्तिक है । 'अवकाश दान' ही इसका एक असाधारण गुण है, जिस प्रकार कि धर्मद्रव्यका गमनकारणत्व और अधर्मद्रव्यका स्थितिकारणत्व | यह सर्वव्यापक है और अखण्ड है ।
दिशा स्वतन्त्र द्रव्य नहीं :
इसी आकाशके प्रदेशों में सूर्योदयकी अपेक्षा पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओंकी कल्पना की जाती है । दिशा कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है । आकाशके प्रदेशोंकी पंक्तियाँ सव तरफ कपड़े में तन्तुकी तरह श्रेणीबद्ध हैं । एक परमाणु जितने आकाशको रोकता है उसे प्रदेश कहते है । इस नापसे आकाशके अनन्त प्रदेश हैं । यदि पूर्व, पश्चिम आदि व्यवहार होने के कारण दिशाको एक स्वतन्त्र द्रव्य माना जाता है, तो पूर्वदेश, पश्चिमदेश आदि व्यवहारोंसे 'देश द्रव्य' भी स्वतन्त्र मानना पड़ेगा । फिर प्रान्त, जिला, तहसील आदि बहुतसे स्वतन्त्र द्रव्योंकी कल्पना करनी पड़ेगी । शब्द आकाशका गुण नहीं :
आकाश में शब्द गुणकी कल्पना भी आजके वैज्ञानिक प्रयोगोंने असत्य सिद्ध कर दी है । हम पुद्गल द्रव्यके वर्णनमें उसे पौद्गलिक सिद्ध कर आये हैं । यह तो मोटी-सी बात है कि जो शब्द पौद्गलिक इन्द्रियोंसे गृहीत होता है, पुद्गलोंसे टकराता है, पुद्गलोंसे रोका जाता है, पुद्गलों