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जीवद्रव्य विवेचन
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होना चाहिए और वह है - अधर्म द्रव्य । यह भी लोकाकाशके बराबर है, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्दसे- रहित अमूर्तिक है; निष्क्रिय है और उत्पाद - व्ययरूपसे परिणमन करते हुए भी नित्य है । अपने स्वाभाविक सन्तुलन रखनेवाले अनन्त अगुरुलघुगुणों से उत्पाद-व्यय करता हुआ, ठहरनेवाले जीव- पुद्गलों की स्थिति में साधारण कारण होता है । इसके अस्तित्वका पता भी लोककी सीमाओं पर ही चलता है । जब आगे धर्मद्रव्य न होने के कारण जीव और पुद्गल द्रव्य गति नहीं कर सकते तब स्थिति के लिए इसकी सहकारिता अपेक्षित होती है । ये दोनों द्रव्य स्वयं गति नहीं करते; किन्तु गमन करनेवाले ओर ठहरनेवाले जीव और पुद्गलोंकी गति और स्थिति में साधारण निमित्त होते है । लोक और अलोकका विभाग हो इनके सद्भावका अचूक प्रमाण है ।
यदि आकाशको ही स्थितिका कारण मानते है, तो आकाश तो अलोक में भी मौजूद है । वह चूँकि अखण्ड द्रव्य है, अतः यदि वह लोकके बाहर पदार्थो की स्थितिमें कारण नहीं हो मकता; तो लोकके भीतर भी उसकी कारणता नहीं बन सकती । इसलिए स्थितिके साधारण कारणके रूपमें अधर्मद्रव्यका पृथक् अस्तित्व है ।
धर्म और अधर्म द्रव्य, पुण्य और पापके पर्यायवाची नहीं है— स्वतंत्र द्रव्य हैं । इनके असंख्यात प्रदेश हैं, अतः बहुप्रदेशी होनेके कारण इन्हें 'अस्तिकाय' कहते हैं और इसलिए इनका 'धर्मास्तिकाय' और 'अधर्मा स्तिकाय' के रूपमें भी निर्देश होता है । इनका सदा शुद्ध परिणमन होता है । द्रव्यके मूल परिणामी - स्वभाव के अनुसार पूर्व पर्यायको छोड़ने और उत्तर पर्यायको धारण करनेका क्रम अपने प्रवाही अस्तित्वको बनाये रखते हुए अनादिकाल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चालू रहेगा । आकाश द्रव्य :
समस्त जीव- अजीवादि द्रव्योंको जो जगह देता है अर्थात् जिसमें ये समस्त जीव- पुद्गलादि द्रव्य युगपत् अवकाश पाये हुए हैं, वह आकश