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जैनदर्शन संस्कार और बँधे हुए कर्मोमें हीनाधिकता होनेकी सम्भावना भी उत्पन्न हो जाती है।
जैन शास्त्रोंमें एक मरणान्तिक समुद्घात नामकी क्रियाका वर्णन आता है। इस क्रियामें मरणकालके पहले इस आत्माके कुछ प्रदेश अपने वर्तमान शरीरको छोड़कर भी बाहर निकलते हैं और अपने अगले जन्मके योग्य क्षेत्रको स्पर्श कर वापिस आ जाते हैं । इन प्रदेशोंके साथ कार्मण शरीर भी जाता है और उसमे जिस प्रकारके रूप, रस, गंध और स्पर्श आदिके परिणमनोंका तारतम्य है, उस प्रकारके अनुकुल क्षेत्रकी ओर ही उसका झुकाव होता है । जिसके जीवनमें सदा धर्म और सदाचारकी परम्परा रही है, उसके कार्मण शरीरमें प्रकाशमय, लघु और स्वच्छ परमाणुओंकी बहुलता होती है । इसलिए उसका गमन लघु होनेके कारण स्वभावतः प्रकाशमय लोकको ओर होता है । और जिसके जीवन में हत्या, पाप, छल, प्रपञ्च, माया, मूर्छा आदिके काले, गुरु और मैले परमाणुओंका सम्बन्ध विशेषरूपसे हुआ है, वह स्वभावतः अन्धकारलोककी ओर नीचेकी तरफ जाता है । यही बात सांख्य शास्त्रों में"धर्मेण गमनमूर्ध्व गमनमधस्तात् भवत्यधर्मेण ।'
-सांख्यका० ४४। इस वाक्यके द्वारा कही गई है। तात्पर्य यह है कि आत्मा परिणामी होनेके कारण प्रतिसमय अपनी मन, वचन और कायकी क्रियाओंसे उन-उन प्रकारके शुभ और अशुभ संस्कारोंमें स्वयं परिणत होता जाता है, और वातारणको भी उसी प्रकारसे प्रभावित करता है । ये आत्मसंस्कार अपने पूर्वबद्ध कार्मण शरीरमें कुछ नये कर्मपरमाणुओंका सम्बन्ध करा देते हैं, जिनके परिपाकसे वे संस्कार आत्मामें अच्छे या बुरे भाव पैदा करते हैं। आत्मा स्वयं उन संस्कारोंका कर्ता है और स्वयं ही उनके फलोंका भोक्ता है । जब यह अपने मूल स्वरूपको ओर दृष्टि फेरता है, तब इस स्वरूप