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________________ जीवद्रव्य विवेचन १५५ खींचा है। हाँ, उन पदार्थोंके जुटने और जुटाने में पुराने संस्कार और उसके प्रतिनिधि पुद्गल द्रव्यके विपाकने वातावरण अवश्य बनाया है । उससे उन-उन पदार्थों का संयोग और वियोग रहता है । यह तो बलाroat बात है । मनुष्य अपनी क्रियाओंसे जितने गहरे या उथले संस्कार और प्रभाव, वातावरण और अपनी आत्मापर डालता है उसोके तारतम्यसे मनुष्योंके इष्टानिष्टका चक्र चलता है । तत्काल किसी कार्यका ठीक कार्यकारणभाव हमारी समझमें न भी आये, पर कोई भी कार्य कारण नहीं हो सकता, यह एक अटल सिद्धान्त है । इसी तरह जीवन और मरण के क्रम में भी कुछ हमारे पुराने संस्कार और कुछ संस्कारप्रेरित प्रवृत्तियाँ तथा इह लोकका जीवन व्यापार सब मिलकर कारण बनते हैं । नूतन शरीर धारणकी प्रक्रिया : जब कोई भी प्राणी अपने पूर्व शरीरको छोड़ता है, तो उसके जीवन भरके विचारों, वचन - व्यवहारों और शरीरकी क्रियाओंसे जिस-जिस प्रकार - के संस्कार आत्मापर और आत्मासे चिरसंयुक्त कार्मण- शरीरपर पड़े है, अर्थात् कार्मण-शरीरके साथ उन संस्कारोंके प्रतिनिधिभूत पुद्गल द्वव्योंका जिस प्रकारके रूप, रस, गन्ध और स्पर्शादि परिणमनोंसे युक्त होकर सम्बन्ध हुआ है, कुछ उसी प्रकारके अनुकूल परिणमनवाली परिस्थिति में यह आत्मा नूतन जन्म ग्रहण करनेका अवसर खोज लेता है और वह पुराने शरीर के नष्ट होते ही अपने सूक्ष्म कार्मण शरीरके साथ उस स्थान तक पहुँच जाता है । इस क्रियामें प्राणीके शरीर छोड़ने के समय के भाव और प्रेरणाएँ बहुत कुछ काम करतीं हैं इसीलिए जैन परम्परामें समाधिमरणको जीवनकी अन्तिम परीक्षाका समय कहा है; क्योंकि एक बार नया शरीर धारण करनेके बाद उस शरोरकी स्थिति तक लगभग एक जैसी परिस्थितियाँ बनी रहनेकी सम्भावना रहती है । मरणकालकी इस उत्क्रान्तिको सम्हाल लेने पर प्राप्त परिस्थितियोंके अनुसार बहुत कुछ पुराने ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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