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जैनदर्शन मानकर उसीमें कपासके बीजमें लाखके संस्कारसे रंगभेदको' कल्पनाको तरह फलको संगति बैठाना भी नहीं जम सकता। कपासके बीजके जिन परमाणुओंको लाखके रंगसे सींचा था, वे ही स्वरूपसत् परमाणुपर्याय बदलकर रुईके पौधेको शकलमें विकसित हुए हैं, और उन्होंमें उस संस्कारका फल विलक्षण लाल रंगके रूपमें आया है। यानी इस दृष्टान्तमें सभी चीजें वस्तुसत् है , 'मृपा' नहीं, किन्तु जिस सन्तानपर बौद्ध कर्मवासनाओंका संस्कार देना चाहते हैं और जिसे उसका फल भुगतवाना चाहते हैं, उस सन्तानको पंक्तिकी तरह बुद्धिकल्पित नहीं माना जा सकता, और न उसका निर्वाण अवस्थामें समूलोच्छेद ही स्वीकार किया जा सकता है। अतः निर्वाणका यदि कोई युक्तिसिद्ध और तात्त्विक स्वरूप बन सकता है तो वह निरास्रवचित्तोत्पाद रूप ही, जैसा कि तत्त्वसंग्रहकी पञ्जिका ( पृष्ठ १८४ ) में उद्धृत निम्नलिखित श्लोकसे फलित होता है
"चित्तमेव हि संसारो रागादिक्लेशवासितम्।
तदेव तैर्विनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते ॥" अर्थात्-रागादि क्लेशसे दूपित चित्त ही संमार है और रागादिसे रहित वीतराग चित्त ही भवान्त अर्थात् मुक्ति है ।
जब वही चित्त संसार अवस्थासे बदलता-बदलता मुक्ति अवस्थाम निरास्रव हो जाता है, तब उसकी परंपरारूप संततिको सर्वथा आवस्तविक नहीं कहा जा सकता । इस तरह द्रव्यका प्रतिक्षण पर्यायरूपसे परिवर्तन होने पर भी जो उसकी अनाद्यनन्त स्वरूपस्थिति है और जिसके कारण उसका समलोच्छेद नहीं हो पाता, वह स्वरूपास्तित्व या ध्रौव्य है। यह काल्पनिक न होकर परमार्थसत्य है। इसोको ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं।
१. “यस्मिन्नेव तु सन्ताने आहिता कर्मवासना । फलं तत्रव सन्धत्ते कार्पासे रक्तता यथा ॥"
-तत्त्वसं० ५० पृ० १८२ में उद्धृत ।