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पदार्थका स्वरूप
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अर्थपर्याय रूपसे परिणमन करता है, उसमें ऐसा कोई भी स्थायी अंश नहीं बचता जो द्वितीय क्षणमें पर्यायोंके रूपमें न बदलता हो । यदि यह माना जाय कि उसका कोई एक अंश बिलकुल अपरिवर्तनशील रहता है, और कुछ अंश परिवर्तनशील; तो नित्य तथा क्षणिक दोनों पक्षोंमें दिये जानेवाले दोष ऐसी वस्तु में आयँगे । कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध माननेके कारण पर्यायोंके परिवर्तित होने पर द्रव्यमें कोई अपरिवर्तिष्णु अंश बच ही नहीं सकता । अन्यथा उस अपरिवर्तिष्णु अंशसे तादात्म्य रखनेके कारण शेष अंश भी अपरिवर्तनशील ही सिद्ध होंगे । इस तरह कोई एक मार्ग हो पकड़ना होगा - या तो वस्तु नित्य मानी जाय, या बिलकुल परिवर्तनशील यानी चेतन वस्तु भी अचेतनरूपसे परिणमन करनेवाली । इन दोनों अन्तिम सीमाओंके मध्यका हो वह मार्ग है, जिसे हम द्रव्य कहते हैं । जो न बिलकुल अपरिवर्तनशील है और न इतना विलक्षण परिवर्तन करने - वाला, जिससे एक द्रव्य अपने द्रव्यत्वकी सीमाको लाँघकर दूसरे किसी सजातीय या विजातीय द्रव्यरूपसे परिणत हो जाय ।
सीधे शब्दोंमें ध्रौव्यकी यही परिभाषा हो सकती है कि 'किसी एक द्रव्य के प्रतिक्षण परिणमन करते रहने पर भी उसका किसी सजातीय या विजातीय द्रव्यान्तररूपसे परिणमन नहीं होना । इस स्वरूपास्तित्वका नाम ही द्रव्य, धौव्य, या गुण है । बौद्धों के द्वारा मानी गई संतानका भी यही कार्य है । वह नियत पूर्णक्षणका नियत उत्तरक्षणके साथ ही समनन्तरप्रत्ययके रूपमें कार्यकारणभाव बनाता है, अन्य सजातीय या विजातीय क्षणान्तरसे नहीं । तात्पर्य यह है कि इस संतानके कारण एक पूर्वचेतनक्षण अपनी धाराके उत्तरचेतनक्षणके लिए ही समनन्तरप्रत्यय यानी उपादान होता है, अन्य चेतनान्तर या अचेतनक्षणका नहीं । इस तरह तात्त्विक दृष्टिसे द्रव्य या संतानके कार्य या उपयोग में कोई अन्तर नहीं है । अन्तर है तो केवल उसके शाब्दिक स्वरूपके निरूपण में ।