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जैनदर्शन विकार अर्थात् अवस्थाविशेष है। इस तरह द्रव्य परिणमनको दृष्टिसे गुणपर्यायात्मक होकर भी व्यवहारमें अनन्त परद्रव्योंकी अपेक्षा अनन्तधर्मा रूपसे प्रतीतिका विषय होता है। अर्थ सामान्यविशेपात्मक है : ___ बाह्य अर्थकी पृथक् सत्ता सिद्ध हो जानेके बाद विचारणीय प्रश्न यह है कि अर्थका वास्तविक स्वरूप क्या है ? हम पहले वता आये है कि सामान्यतः प्रत्येक पदार्थ अनन्तधर्मात्मक और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यशाली है। इसका मंक्षेपमे हम सामान्यविशेषात्मकके रूपमें भी विवेचन कर सकते है। प्रत्येक पदार्थमें दो प्रकारके अस्तित्व है-स्वरूपास्तित्व और सादृश्यास्तित्व । प्रत्येक द्रव्यको अन्य सजातीय या विजातीय द्रव्यसे असंकीर्ण रखनेवाला और उसके स्वतंत्र व्यक्तित्वका प्रयोजक स्वरूपास्तित्व है । इसीके कारण प्रत्येक द्रव्यको पर्यायें अपनेसे भिन्न किमी भी सजातीय या विजातीय द्रव्यकी पर्यायोंसे असंकीर्ण बनी रहती है और अपना पृथक् अस्तित्व बनाये रखती है । यह स्वरूपास्तित्व जहाँ इतर द्रव्योंसे विवक्षितद्रव्यको व्यावृत्ति कराता है, वहाँ अपनी कालक्रमसे होनेवाली पर्यायोंमें अनुगत भी रहता है । इस स्वरूपास्तित्वसे अपनी पर्यायोंमें अनुगत प्रत्यय उत्पन्न होता है और इतर द्रव्योंसे व्यावृत्त प्रत्यय । इस स्वरूपास्तित्वको ऊर्ध्वता सामान्य कहते है। यही द्रव्य कहलाता है, क्योंकि यही अपनी क्रमिक पर्यायोंमें द्रवित होता है संततिपरंपरासे प्राप्त होता है। बौद्धोंकी संतति और इस स्वरूपास्तित्वमें निम्नलिखित भेद विचारणीय है । स्वरूपास्तित्व और सन्तान :
जिस तरह जैन एक स्वरूपास्तित्व अर्थात् ध्रौव्य या द्रव्य मानते है, उसी तरह बौद्ध सन्तान स्वीकार करते है। प्रत्येक द्रव्य प्रतिक्षण अपनी १. "द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषात्मार्थवेदनम् ।" -न्यायविनि० १।३ ।