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लोकव्यवस्था
सम्बन्धमें कोई भविष्य कहना असंभव है । कारण कि भविष्य स्वयं अनिश्चित है। वह जैसा चाहे वैसा एक सीमा तक बनाया जा सकता है । प्रतिसमय विकसित होनेके लिये सैकड़ों योग्यतायें हैं। जिनकी सामग्री जब जिस रूपमें मिल जाती है या मिलाई जाती है वे योग्यताएँ कार्यरूपमें परिणत हो जाती हैं। यद्यपि आत्माको संसारी अवस्थामें नितान्त परतन्त्र स्थिति है और वह एक प्रकारसे यन्त्रारूढकी तरह परिणमन करता जाता है । फिर भी उस द्रव्यकी निज सामर्थ्य यह है कि वह रुके और सोचे, तथा अपने मार्गको स्वयं मोड़कर उसे नई दिशा दे।
अतीत कार्यके बलपर आप नियतिको जितना चाहे कुदाइए, पर भविष्यके सम्बन्धमें उसकी सीमा है। कोई भयंकर अनिष्ट यदि हो जाता है तो सन्तोषके लिये 'जो होना था सो हुआ' इस प्रकार नियतिकी संजीवनी उचित कार्य करती भी है। जो कार्य जब हो चुका उसे नियत कहने में कोई शाब्दिक और आर्थिक विरोध नहीं है। किन्तु भविष्यके लिये नियत ( done ) कहना अर्थविरुद्ध तो है ही, शब्दविरुद्ध भी है । भविष्य ( to be ) तो नियंस्यत् या नियंस्यमान ( will be done ) होगा न कि नियत ( done ) । अतीतको नियत ( done ) कहिये, वर्तमानको नियम्यमान ( being ) और भविष्यको नियंस्यत् ( will be done )।
अध्यात्मकी अकर्तृत्व भावनाका भावनीय अर्थ यह है कि निमित्तभूत व्यक्तिको अनुचित अहंकार उत्पन्न न हो। एक अध्यापक कक्षामें अनेक क्षात्रोंको पढ़ाता है। अध्यापकके शब्द सब छात्रोंके कानमें टकराते हैं, पर विकास एक छात्रका प्रथम श्रेणीका, दूसरेका द्वितीय श्रेणीका तथा तीसरेका तृतीय श्रेणीका होता है। अतः अध्यापक यदि निमित्त होनेके कारण यह अहंकार करे कि मैंने इस लड़केमें ज्ञान उत्पन्न कर दिया, तो वह एक अंशमें व्यर्थ ही है; क्योंकि यदि अध्यापकके शब्दोंमें ज्ञानके उत्पन्न करनेकी क्षमता थी, तो सबमें एक-सा ज्ञान क्यों नहीं हुआ ? और शब्द तो दिवालोंमें भी टकराये होंगे, उनमें ज्ञान क्यों