________________
जैनदर्शन
का यही मूलभूत अन्तर है कि अध्यात्मक्षेत्रमें पदार्थोके मूल स्वरूप और शक्तियोंका विचार होता है तथा उसीके आधारसे निरूपण होता है जब कि व्यवहार में परनिमित्तकी प्रधानतासे कथन किया जाता है । ' कुम्हारने घड़ा बनाया' यह व्यवहार निमित्तमूलक है, क्योंकि 'घड़ा' पर्याय कुम्हारकी नहीं है किन्तु उन परमाणुओंकी है जो घड़ेके रूपमें परिणत हुए हैं । कुम्हारने घड़ा बनाते समय भी अपने योग – हलन चलन और उपयोगरूपसे ही परिणति की है । उसका सन्निधान पाकर मिट्टीके परमाणुओंने घट पर्यायरूपसे परिणति कर ली है। इस तरह हर द्रव्य अपने परिणमनका स्वयं उपादानमूलक कर्त्ता है । आ० कुन्दकुन्दने इस तरह निमित्तमूलक कर्त्त त्वव्यवहारको अध्यात्मक्षेत्र में नहीं माना है । पर स्वकर्तृत्व तो उन्हें हर तरह इष्ट है ही, और उसीका समर्थन और विवेचन उनने विशद रीतिसे किया है । परन्तु इस नियतिवादमें तो स्वकर्तृत्व ही नहीं है । हर द्रव्यकी प्रतिक्षणकी अनन्त भविष्यत्कालीन पर्यायें क्रम - क्रमसे सुनिश्चित हैं । वह उनकी धाराको नहीं बदल सकता । वह केवल नियतिपिशाचिनीका क्रीडास्थल है और उसीके यन्त्र से अनन्तकाल तक परिचालित रहेगा । अगले क्षणको वह असत्से सत् या तमसे प्रकाशकी ओर ले जानेमें अपने उत्थान, बल, वीर्य, पराक्रम या पौरुषका कुछ भी उपयोग नहीं कर सकता । जब वह अपने भावोंको ही नहीं बदल सकता, तब स्वकर्तृत्व कहाँ रहा ? तथ्य यह है कि भविष्य के प्रत्येक क्षणका अमुक रूपमें होना अनिश्चित है । मात्र इतना निश्चित है कि कुछ-न-कुछ होगा अवश्य । द्रव्यशब्द स्वयं 'भव्य' होने योग्य, योग्यता और शक्तिका वाचक है । द्रव्य उस पिघले हुए मोमके समान है, जिसे किसी-न-किसी साँचेमें ढलना है । यह निश्चित नहीं है कि वह किस सांचे में ढलेगा । जो आत्माएँ अबुद्ध और पुरुषार्थहीन हैं उनके सम्बन्ध में कदाचित् भविष्यवाणी की भी जा सकती हो कि अगले क्षणमें इनका यह परिणमन होगा । पर सामग्रीकी पूर्णता और प्रकृतिपर विजय करनेको दृढ़प्रतिज्ञ आत्माके