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जैनदर्शन विचित्र परिणमन होते हैं । एक ही आमके फलमें परिपाकके अनुसार कहीं खट्टा और कहीं मीठा रस तथा कहीं मृदु और कहीं कठोर स्पर्श एवं कहीं पीत रूप और कहीं हरा रूप हमारे रोजके अनुभवको बात है। इससे उस आम्र स्कन्धगत परमाणुओंका सम्मिलित स्थूल-आम्रपर्यायमें शामिल रहने पर भी स्वतन्त्र अस्तित्व भी बराबर बना रहता है, यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है । उस स्कन्धमें सम्मिलित परमाणुओंका अपना-अपना स्वतन्त्र परिणमन बहुधा एक प्रकारका होता है। इसीलिये उस औसत परिणमनमें 'आम्र' संज्ञा रख दी जाती है। जिस प्रकार अनेक पुद्गलाणु द्रव्य सम्मिलित होकर एक साधारण स्कन्ध पर्यायका निर्माण कर लेते हैं फिर भी स्वतन्त्र हैं, उसी तरह संसारी जीवोंमें भी अविकसित दशामें अर्थात् निगोदकी अवस्थामें अनन्त जीवोंके साधारण सदृश परिणमनकी स्थिति हो जाती है और उनका उस समय साधारण आहार, साधारण श्वासोच्छवास, साधारण जीवन और साधारण ही मरण होता है । एकके मरने पर सब मर जाते है और एकके जीवित रहने पर भी सब जीवित रहते हैं। ऐसी प्रवाहपतित साधारण अवस्था होने पर उनका अपना व्यक्तित्व नष्ट नहीं होता, प्रत्येक अपना विकास करनेमें स्वतन्त्र रहते हैं । उन्हींकी चेतना विकसित होकर कीड़ा-मकोड़ा, पशु-पक्षी, मनुष्यदेव आदि विविध विकासको श्रेणियोंपर पहुँच जाती है। वही कर्मबन्धन काटकर सिद्ध भी हो जाती है।
सारांश यह कि प्रत्येक संसारी जीव और पुद्गलाणुमें सभी सम्भाव्य द्रव्यपरिणमन साक्षात् या परम्परासे सामग्रीको उपस्थितिमें होते रहते हैं। ये कदाचित् समान होते हैं और कदाचित् असमान । असमानताका अर्थ
१. “साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहणं च । साहास्णजीवाणं साहारणलक्षणं भणियं ॥"
-गोम्मटसार जी० गा० १९१ ।