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लोकव्यवस्या
क्रिया नहीं होती । इनमें उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक निज स्वभावके कारण अपने अगुरुलघुगुणके सद्भावसे सदा समान परिणमन होता रहता है । प्रश्न है सिर्फ संसारी जीव और पुद्गल द्रव्यका । इनमें वैभाविकी शक्ति है । अतः जिस प्रकारको सामग्री जिस समय उपस्थित होती है उसकी शक्तिकी तरतमतासे वैसे वैसे उपादान बदलता जाता है । यद्यपि निमित्तभूत सामग्री किसी सर्वथा असद्भूत परिणमनको उस द्रव्यमें नहीं लाती; किन्तु उस द्रव्यके जो शक्य - संभाव्य परिणमन है, उन्हीं में से उस पर्यायसे होनेवाला अमुक परिणमन उत्पन्न हो जाता है । जैसे प्रत्येक पुद्गल अणुमें समान रूपसे पुद्गलजन्य यावत् परिणमनोंकी योग्यता है । प्रत्येक अणु अपनी स्कन्ध अवस्था में कपड़ा बन सकता है, सोना बन सकता है, घड़ा बन सकता है और पत्थर बन सकता है तथा तैलके आकार हो सकता है । परन्तु लाख प्रयत्न होनेपर भी पत्थररूप पुद्गलसे तैल नहीं निकल सकता, यद्यपि तेल पुद्गलकी ही पर्याय है। मिट्टीसे कपड़ा नहीं बन सकता, यद्यपि कपड़ा भी पुद्गलका ही एक विशेष परिणमन जब पत्थर-स्कन्धके पुद्गलाणु खिरकर मिट्टी में मिल जाँय और खाद बनकर तैलके पौधेमें पहुँचकर तिल बीज बन जाँय तो उससे तैल निकल ही सकता है । इसी तरह मिट्टी कपास बनकर कपड़ा बन सकती है पर साक्षात् नहीं । तात्पर्य यह कि पुद्गलाणुओंमें समान शक्ति होने पर भी अमुक स्कन्धोंसे साक्षात् उन्हीं कार्योंका विकास हो सकता है जो उस पर्यायसे शक्य हों और जिनको निमित्त सामग्री उपस्थित हो । अतः संसारी जीव और पुद्गलों की स्थिति उस मोम जैसी है जिसे संभव साँचोंमें ढाला जा सकता है और जो विभिन्न साँचोंमें ढलते जाते हैं ।
हाँ,
निमित्तभूत पुद्गल या जीव परस्पर भी प्रभावित होकर विभिन्न परिणमनोंके आधार बन जाते हैं । एक कच्चा घड़ा अग्निमें जब पकाया जाता है तब उसमें अनेक जगहके पुद्गल स्कन्धों में विभिन्न प्रकारसे रूपादिका पारिपाक होता है । इसी तरह अग्निमें भी उसके सन्निधानसे
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