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________________ लोकव्यवस्था "अण्णदविएण अण्णदव्वस्स णो कीरदे गुणुप्पादो। तम्हा दुसव्वदवा उप्पजन्ते सहावेण ॥" -समयसार गा० ३७२। अर्थात्-एक द्रव्य दूसरे द्रव्यमें कोई भी गुणोत्पाद नहीं कर सकता । सभी द्रव्य अपने-अपने स्वभावसे उत्पन्न होते है । इस तरह प्रत्येक द्रव्य की परिपूर्ण अखंडता और व्यक्ति-स्वातन्त्र्यको चरम निष्ठापर सभी अपने-अपने परिणमन-चक्रके स्वामी है। कोई किसीके परिणमनका नियन्त्रक नहीं है और न किसीके इशारेपर इस लोकका निर्माण या प्रलय होता है । प्रत्येक 'सत्' का अपने गुण और पर्यायपर ही अधिकार है, अन्य द्रव्यका परिणमन तदधीन नहीं है । इतनी स्पष्ट और असन्दिग्ध स्थिति प्रत्येक सत्की होनेपर भी पुद्गलोंमें परस्पर तथा जीव और पुद्गलका परस्पर एवं संसारी जीवोंका परस्पर प्रभाव डालनेवाला निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध भी है। जल यदि अग्नि पर गिर जाता है तो उसे बुझा देता है और यदि वह किमी वर्तनमें अग्निके ऊपर रखा जाता है तो अग्नि ही उसके सहज शीतल स्पर्शको बदलकर उसको उष्णस्पर्श स्वीकार करा देती है। परस्परको पर्यायोंमें इस तरह प्रभावक निमित्तता होने पर भी समस्त लोकरचनाके लिए कोई नित्यसिद्ध ईश्वर निमित्त या उपादान होता हो, यह बात न केवल युक्तिविरुद्ध ही है किन्तु द्रव्योंके निजस्वभावके विपरीत भी है। कोई भी द्रव्य सदा अविकारी नित्य हो ही नहीं सकता । अनन्त पदार्थोकी अनन्त पर्यायोंपर नियन्त्रण रखने जैसा महाप्रभुत्व न केवल अवैज्ञानिक है किन्तु पदार्थ-स्थितिके विरुद्ध भी है। निमित्त और उपादान : ____ जो कारण स्वयं कार्यरूप मे परिणत हो जाय वह उपादान कारण है और जो स्वयं कार्यरूप परिणत तो न हो, पर उस परिणमनमें सहायता दे
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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