________________
४. लोकव्यवस्था जैनी लोकव्यवस्थाका मूल मंत्र हैमूल मन्त्र :
"भावस्स पत्थि णासो पत्थि अभावस्स चेव उप्पादो। गुणपज्जएसु भावा उप्पायवयं पकुव्वंनि ।”
-पंचा० गा० १५० । किमी भाव अर्थात् सत्का अत्यन्त नाश नहीं होता और किसी अभाव अर्थात् अमत्का उत्पाद नही होता। सभी पदार्थ अपने गुण और पर्याय रूपसे उत्पाद, व्यय करते रहते है । लोकमे जितने सत् है वे त्रैकालिक सत् है। उनकी संख्यामे कभी भी हेर-फेर नहीं होता। उनकी गुण और पर्यायोंमे परिवर्तन अवश्यम्भावी है, उसका कोई अपवाद नहीं हो सकता । इस विश्वमे अनन्त चेतन, अनन्त पुद्गलाणु, एक आकाश, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य और असंख्य कालाणु द्रव्य है। इनसे यह लोक व्याप्त है। जितने आकाश देशमे ये जोवादि द्रव्य पाये जाते है उसे लोक कहते है । लोकके बाहर भी आकाश है, वह अलोक कहलाता है। लोकगत आकाश और अलोकगत आकाश दोनों एक अखण्ड द्रव्य है। यह विश्व इन अनन्तानंत 'सतो' का विराट् आगार है और अकृत्रिम है। प्रत्येक 'सत्' अपनेमे परिपूर्ण स्वतन्त्र और मौलिक है।
सत्का लक्षण हैं उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त होना। प्रत्येक सत् प्रतिक्षण परिणमन करता है। वह पूर्व पर्यायको छोड़कर उत्तर पर्याय
१. "लोगो अकिट्टिमो खलु" -मूला० गा० ७१२ । २. "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" -त० सू० ५।३० ।