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________________ संजया (सयति) ४८९ है। प्रथम तीन सयति के पर्यव परस्पर तुल्य तथा पट् गुण हानि वृद्धि ।' सूक्ष्म० यथा० से ३ सयम अनन्त गुणा न्यून है । सूक्ष्म० तीनो ही से अनन्त गुणा अधिक है । परस्पर षट् गुण हानि वृद्धि और यथा० से अनन्त गुणा न्यून है। यथा० चारो ही से अनन्त गुणा अधिक है। परस्पर तुल्य है। __ अल्प वहुत्व :१ सर्व से कम सामा० छेदो० के ज० सयम पर्यव (परस्पर तुल्य) २ उनसे छेदो. परिहार विशुद्ध के ज० सयम पर्यव अनन्त गुणा ३ उनसे छेदो परिहार विशुद्ध के उत्कृष्ट पर्यव अनन्त गुणा ४ उनसे छेदो सामा० छेदो० के उत्कृष्ट पर्यव अनन्त गुणा ५ उनसे छेदो सूक्ष्म सम्पराय के जघन्य पर्यव अनन्त गुणा ६ उनसे छेदो. सूक्ष्म सम्पराय के उत्कृष्ट पर्यव अनन्त गुणा ७ उनसे छेदो. यथाख्यात के ज० उ० पर्यव परस्पर तुल्य १६ योग द्वार-४ सयति, सयोगी और यथा० सयोगी एव अयोगी। १७ उपयोग द्वार-सक्ष्म मे साकार उपयोगी होवे । शेप चार में साकार निराकार दोनो ही उपयोग वाले होवे। १८ कषाय द्वार-३ सयति सज्वलन का चौक (चारो की कपाय) मे होवे, सूक्ष्म० सज्व० लोभ मे होवे और यथा० अकपायी (उपशांत तथा क्षीण) होवे। १६ लेश्या द्वार–सामा० छेदो० मे ६ लेश्या, परि० मे ३ शुभ लेश्या, मूक्ष्म, मे शुक्ल लेश्या, यथा० मे १ शुक्ल लेश्या अलेशी भी होवे । २० परिणाम द्वार–३ सयति मे तीनो ही परिणाम उनकी स्थिति हायमान तथा वर्धमान की ज० १ उ०७ अ० मु० की, अवस्थित की ज० १ समय की, सूक्ष्म० मे २ परिणाम (हायमान, वर्धमान) इनकी स्थिति ज० उ० अं० मु० की, यथा० मे २ परिणाम,
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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