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________________ जैनागम स्तोक संग्रह ३ असरणाणुप्पेहा :— इस भव के अन्दर व परलोक में जाते हुए जीव को एक समकित पूर्वक जैनधर्म बिना जन्म, जरा, मरण के दु.ख दूर करने में अन्य कोई शरण समर्थ नही । ऐसा जानकर श्री जैन धर्म का शरण लेना चाहिए, जिससे परम सुख की प्राप्ति होवे । यह तीसरी अणुप्पेहा है | ३६४ १ संसाराणुप्पेहा : – स्वार्थ रूप संसार समुद्र के अन्दर जन्म, जरा, मरण, संयोग वियोग शारीरिक मानसिक दुख, कषाय मिथ्यात्व, तृष्णारूप अनेक जल कल्लोलादिक की लहरो से चार गति चौवीश दंडक के अंदर परिभ्रमण करते हुए जीव को श्री जैनधर्म रूप द्वीप का आधार है और संयम रूप नाव को शुद्ध समकित रूप निर्जामक नाविक ( नाव चलाने वाला) है । ऐसी नावो के द्वारा जीव - सिद्धि रूप महानगर के अन्दर पहुँच जाता है । जहां अनन्त अतुल विमल सिद्धि के सुख प्राप्त करता है । यह धर्मध्यान की चौथी अणुप्पेहा है | धर्म ध्यान के गुण जान कर सदा धर्मध्यान ध्यावे, जिससे जीव को परम सुख की प्राप्ति होवे ।
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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