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________________ धर्म-ध्यान ३६३ दरिद्री भर्तार की स्त्री रूप मे, अलक्ष रूप दुर्भागिणीपने और नटपने प्रवर्त हुआ तो भी मनुष्य पने स्त्री पुरुष के अवतार पूरे नही हुए। तिर्यञ्च पचेन्द्रिय जलचरादि के अन्दर स्त्री वेद से प्रवर्त हुआ वह जीव सात नरक मे, पॉच एकेन्द्रिय मे, तीन विकलेन्द्रिय तथा असज्ञी तिर्य च मनुष्य के अन्दर भी जीव नपुंसक वेद से प्रवर्त हुआ, परमार्थे लागठ स्त्री वेद से प्रवर्त हुआ । उत्कृष्ट ११० पल्य और पृथक् पूर्व क्रोड तक स्त्री वेद मे खेला । जघन्य आयुष्य भोगने के आश्री अन्त० पुरुष वेद में उत्कृष्ट पृथक् सो सागर जाजेरा तक खेला । जघन्य आयुष्य भोगने के आश्री अन्त०, नपु सक वेद उ० अनत काल चक्र अस० पुद्गल परावर्तन तक खेला। जहा गया वहा अकेला पुद्गल के सयोग से अनेक रूप परा० किये। यह सर्व रूप व्यवहार नय से जानना। इस प्रकार के परिभ्रमण को मिटाने वाले श्री जैनधर्म के अन्दर शुद्ध श्रद्धा सहित शुद्धउद्यम पराक्रम करे तब ही आत्मा का साधन होवे और इस समय आत्मा के सिद्ध पद की प्राप्ति होती है । इसमे निश्चय नय से एक ही आत्मा जानना चाहिए । जब शुद्ध व्यवहार में प्रवर्त होकर अशुद्ध व्यवहार को दूर करे, तब सिद्ध गति प्राप्त होती है। इस प्रकार की मेरी एक आत्मा है । अपर परिवार स्वार्थ रूप है और पउगसा, मीससा तथा वीससा पुद्गल ये पर्याय करके जैसे स्वभाव मे है वैसे स्वभाव मे नही रहते है अतः अशाश्वत है। इसलिए अपनी आत्मा को अपने कार्य का साधक व शाश्वत जान कर अपनी आत्मा का साधन करे। अणिच्चाणुप्पेहा :--रूपी पुद्गल की अनेक प्रकार से यतना करने पर भी ये अनित्य है। नित्य केवल एक श्री जैनधर्म परम सुखदायक है । अपनी आत्मा को नित्य जानकर समकितादिक सवर द्वारा पुष्ट करे । यह दूसरी अणुप्पेहा है ।
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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