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________________ 43 पाच ज्ञान का विवेचन २२ε काल में संख्यात जीव दुख से मुक्त हो रहे है । व भविष्य में आज्ञा का आराधन करके अनन्त जीव दुख से मुक्त होवेगे । इसी प्रकार सूत्र की विराधना करने से तीनो काल में संसार के अन्दर भ्रमण करने का ( ऊपर समान ) जानना । श्रुतज्ञान (द्वादशागरूप ) सदा कल लोक आश्री है | श्रुत ज्ञान - समुच्चय चार प्रकार का है - द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से । द्रव्य से- श्रुतज्ञानी उपयोग द्वारा सर्व द्रव्य जाने व देखे । ( श्रद्धा द्वारा व स्वरूप चितवन करने से ) क्षेत्र से - श्रुतज्ञानी उपयोग द्वारा सर्व क्षेत्र की बात जाने व देखे ( पूर्व वत् ) काल से- श्रुतज्ञानी उपयोग द्वारा सर्व काल की बात जाने व देखे ( पूर्ववत् ) भाव से - श्रुतज्ञानी उपयोग द्वारा सर्वं भाव जाने व देखे । अवधिज्ञान का वर्णन १ अवधि ज्ञान के मुख्य दो भेद - १ भवप्रत्ययिक २ क्षायोपशमिक । १ भवप्रत्ययिक के दो भेद - १ नेरियो को व २ देवो (चार प्रकार के) को जो होता है वह भव सम्बन्धी । यह ज्ञान उत्पन्न होने के समय से लगा कर भव के अन्त समय तक रहता है २ क्षायोपशमिक के दो भेद :- १ सज्ञी मनुष्य को व २ संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय को होता है । क्षयोपशम भाव से जो उत्पन्न होता है व क्षमादिक गुणो के साथ अरणगार को जो उत्पन्न होता है वह क्षायोपशमिक | अवधिज्ञान के ( सक्ष ेप मे ) छ भेद - १ अनुगामिक, अनानुगामिक, ३ वर्धमानक, ४ हीयमानक, ५ प्रतिपाति, ६ अप्रतिपाति ।
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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