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________________ 1 श्री गुणस्थान द्वार १८६ ७ तक उपयोग –४ ज्ञान ३ दर्शन (एव ७ ) तेरहव े चौदहवें गु० तथा सिद्ध में २ उपयोग १ केवल ज्ञान और २ केवल दर्शन । १६ लेश्या द्वार पहले से छठे गु० तक ६ लेश्या पावे, सातवे गु० तीन लेश्या पावे-तेजो, पद्म और शुक्ल । आठवे से बारहवे गु० तक १ शुक्ल लेश्या तेरहवे गु० १ परम शुक्ल लेश्या, चौदहवे गु० लेश्या नही । २० चारित्र द्वार पहले से चौथे गु० तक कोई चारित्र नही, पाचवे गु० देश थकी सामायिक चारित्र, छट्टो सातवे गु० ३ तीन चारित्र सामायिक चारित्र, छेदोपस्थानीय चारित्र, परिहारविशुद्ध चारित्र, एवं तीन | आठवे नववे गु० २ दो चरित्र सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्र दशवे गु० १ सूक्ष्मसपरायचारित्र, ग्यारहवे से चौदहवें गु० तक १ यथाख्यात चारित्र । २१ समकित द्वार पहले तीसरे गु० समकित नही, दूसरे गु० १ सास्वादान समकित चौथे, पांचवे, छट्टो गु उपशम तथा क्षयोपशम और सातवे गु० ३ उपशम, क्षयोपशम, क्षायक । दशवळे ग्यारहव े गु० २ दो समकित, उपशम और क्षायक, बारहवे तेरहव े, चौदहव े गु० तथा सिद्ध में १ क्षायक पावे । २२ अल्पबहुत्व द्वार सर्व से थोडा ग्यारहवे गुणस्थानवाले । एक समय में उपशमश्री रिणवाला ५४ जीव मिले। इससे बारहवे गुणस्थानवाला संख्यात गुणा । एक समय मे क्षपकश्रेणि वाला १०८ जीव पावे | इससे आठवे नववे दशवे गु० संख्यात गुणा, जघन्य २०० उत्कृष्ट ६०० पावे । इससे
SR No.010342
Book TitleJainagam Stoak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMaganlal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year2000
Total Pages603
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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