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रहा । ऐसी दशा में साधु सुपात्र और श्रावक कुपात्र कैसे हो सकता है ?
तेरह-पन्थी साधु दूसरे सत्य व्रत को भी शास्त्र पाठ का विप रीत अर्थ करके तोड़ते हैं। यद्यपि इस विषयक सैकड़ों उदाहरण दिये जा सकते हैं, लेकिन विषय वढ़ जावेगा और अभी इसमें आगे भी कुछ आवेगा ही, इसलिए यहाँ केवल एक ही उदाहरण देकर सन्तोष करते हैं ।
उपासक दशांग सूत्र में पन्द्रह कर्मादान बताकर श्रावकों के लिए कहा है कि ये कर्मादान ( व्यापार ) श्रावकों को जानने चाहिएँ, परन्तु इनका श्राचरण न करना चाहिये। उन पन्द्रह कर्मादान में पन्द्रहवाँ कर्मादान 'असईजण पोसणयां' है। इसका अर्थ है - असई यानी असती, जण यानी लोग, पोसणया यानी पोषण करना । अर्थात् असती ( दुराचारिणी ) स्त्रियों का पोषण करने का व्यापार करना । जैसा कि आजकल बम्बई खादि में होता है, कि कुल्टानों को रखकर, उनके द्वारा आजीविका चलाते हैं। श्रावकों के लिए यह कर्म निषिद्ध है ।
असई का अर्थ असंयति कदापि नहीं होता । 'न' 'सई' का निषेधक है। मूल शब्द 'सई' है। 'सई' शब्द साधु के अर्थ में न तो है, न कहीं आया ही है । सई शब्द का अर्थ सती होता है सो 'अ' से सतीत्व का निषेध रूप असतो यानी कुल्टा