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प्रयत्न क्यों करते हैं, और जो शरीर से ममत्व रखते हैं, तो आपका परिग्रह व्रत नष्ट हुआ या रहा १
: इस प्रकार साधु तो पहिले त अहिंसा (जैसा कि पूर्व के प्रकरण में नाव विहार आदि के उदाहरण देकर सिद्ध किया जा चका है ) को भी तोड़ते हैं, पाँचवें परिग्रह व्रत को भी तोड़ते हैं, और दूसरे सत्यव्रत को भी तोड़ते हैं, लेकिन श्रावक ने जितने भी व्रत लिये हैं, उन सबका पूर्णतया पालन करता है, फिर भी साधु को आहोर पानी देना धर्म और श्रावक को खिलाना पिलाना पाप कैसे है व्रतों का भंग साधु करते हैं, ऐसी दशा में सुव्रती साधु रहें या श्रावक रहा १ अन्रत साधु में आया, या श्रावक में ओया ? . . , . . . . .
यदि तेरह-पन्थी साधु, यह कहें कि हम में यानी साधुओं में "जो' कमी है, साधु उसी कमी को मिटाने की ही भावना रखते हैं, तो इसका उत्तर यह है कि क्या श्रावक इस प्रयत्न में नहीं रहता है ? वह भी नित्य ही. चौदह नियम का चितवन करता है व मनोरथादि भावना भाता है, जिसमें से एक यह भी है कि कब वह दिन धन्य होगा, जब मैं प्रारम्भ परिग्रह का सर्वथा त्यागी होऊँगा। इस तरह इस अंश में 'तो. साधु और श्रावक बरावर ही रहे, और ग्रहण किये हुए व्रतों का पालन करने के अंश में साधु की अपेक्षा श्रावक' श्रेष्ठ ही