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( ५५ ) की तरह हिंसक कहते हैं, जो पाँच सौ गाय बैल नित्य मारता है। इस विषय में पूर्व के एक प्रकरण में यह. बताया जा चुका है, कि एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव समान नहीं हैं, दोनों की हिंसा भी समान नहीं है और दोनों की हिंसा का परिणाम भी समान नहीं है। हमने गत प्रकरण में जो कुछ कहा है, उसमें से इस एक बात को हम फिर दोहराते हैं, कि यदि दोनों की हिंसा समान है, तो तेरह-पन्थी साधु पंचेन्द्रिय जीव हनने वाले को श्रावक क्यों नहीं बनाते, जब कि असंख्य और अनन्त एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा करने वाले व्यक्ति को वे अपना श्रावक बना लेते है ? इसके सिवा शास्त्र में यह तो कहा है कि पंचेन्द्रिय बघं नरक का कारण है, परन्तु क्या कहीं ऐसा भी कहा है कि एकेन्द्रिय का वध करने वाला श्रावक भी नरक में जाता है? शास्र का वह पाठ यहाँ लिखते हैं। — एवं खलु चाहिं ठाणेहिं जीवा नेरइताए कम्मं प्प करंति-गेरइत्ताए कम्मं प्पकरेत्ता णेरइएमु उववज्जतितंजहा महारंभाए महा परिग्गहिया ए, पंचिंदिय वहेणं कुंणिमा हारेणं ।
('उववाई सूत्र' तथा 'श्री भगवती सूत्र) भावार्थ-इस प्रकार चार स्थानक से जीव नरक-गति में जाने का कर्म करता है और वह नरक में उपजने के कर्म उपार्जन