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( २० ) बैरागी ॥ सोमल बैर कढावै । खैरका खोरा वया शीशपर ॥ खद बद खीर पकावै। प्र० ॥५॥ सोमल पर कछु हेस न पाण्यों॥ अपां कर्म उड़ावै ॥ जेहनी परे पमु सम. परिणांमें बेदन सहन करावै। पभु तोरा च्यार तीर्थ० ॥६॥ अरजन माली थयो क्षेश्वर । भिच्या अवसर जावै ॥ घणा लोक देखीने त्यांन। बहु विध कष्ट उपजाबै ॥ पु० ॥ ७॥ पिण मुनि रांग हेस नहीं किणपर ॥ अपणांही संच्या हटावै। तेह नौ परे प्रभु पंचम आरैमें ॥ चौथो आरो बरतावै ॥ प्र० ॥८॥ चरम जिनंद सधा कष्ट धणेरा। सम चितनै सम भावै ॥ वह जिसा आप भर्थक्षेत्रमें। दूजो को न लखावै ॥ प्र०॥६॥ बहु बेदन तोही च्यार तीर्थने। भिन २ सौख दिरावै ॥ अमृत धारा बचन अषण सुण। सबै मग्न होय ज्यावै ॥ ५० ॥