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(: १२ ) कंचन हुवै सारो॥ तुम संगत शिव सुख कं पावै ॥ दुःखसे हो छुटकारो। पल ॥३॥ पोत प्रसंगे सागर मांही॥ पहुंचे पडूले पारो॥ भव सागर बिच जहाज समां तुम। पार उतारन हारी। पल० ॥४॥ कल्पक्ष सम आशा पूरण । चिंत्या चुर्ण मंदारो । तुज गुण ज्यो तन मन सुगाबे । कर देवी रखेवो पारो। पन्न० ॥ ५ ॥ अभय दान जीवों कों आपो। तुम सम कोन दातारो ॥ जोरावर पर मेहर करिने। द्यो शिवपद सुखकारो । पल० ॥ ६ ॥ पैंसठ पौष शल तिथि द्वितीया । कलकत्ता सहर मंझारी। श्रीगुरुदेव तणां गुणगाया । प्रगद्यो आनन्द अपारो। पल० ॥ ७ ॥ इति । · अथ ढाल३ तीसरी राग० जवाइकै मांगक गौतकी बचनारी बांध्यो ढोलोकयोय न माने । एदेशी० बान्दोरे सुन्यानी जीवड़ा