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द्वितीय अध्याय : आदर्श महापुरुष
[५६ प्रारम्भ किया। महावीर ने सबसे प्रथम गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थो को भावनाओ के साथ पाँच महाव्रत का उपदेश दिया था। उनका कहना था कि साधु को जीवन पर्यन्त के लिए मन, वचन, काय से समस्त जीवो की हिंसा, असत्य-रूप वाणी, सव प्रकार की चोरी, सव प्रकार के मैथुन और सब प्रकार के परिग्रह तथा उनमें आसक्ति का त्याग करना चाहिए । उपर्युक्त प्रकार के पाप, साधु न स्वय करे, न दूसरो से करावे और न करते हुए व्यक्ति का अनुमोदन ही करे ।।
महावीर सुन्दर तथा सहज ग्राह्य दृष्टान्त देकर जनता को ससार से विराग का उपदेश दिया करते थे। एक बार उन्होने पुडरीक (कमल) का दृष्टान्त देकर पथभ्रष्ट मानवो को सन्मार्ग पर आने का उपदेश दिया था। उन्होने कहा कि एक, जल और दलदल से परिपूर्ण वड़ी सुन्दर झील है । उसमे जगह-जगह पुडरीक उगे हुए है। उन सब के वीच झील के मध्य भाग मे एक बहुत वडा पुडरीक है जिस की सुगन्ध और सौन्दर्य अद्वितीय है।
पूर्व दिशा से एक पुरुष झील के पास आया और तट पर खडा होकर उस पुडरीक को देखकर बोला, "मै कुगल और उद्योगी पुरुष हूँ। मैं मार्ग-गमन-शक्ति का जानने वाला हूँ। मैं अभी इस पुंडरीक को उखाड डालूगा।" वह झील मे उतर कर आगे बढने लगा, किन्तु ज्यो-ज्यो वह आगे वढा त्यो-त्यो जल और दलदल मे फंसता गया। अत मे ऐसे गहरे पानी और कीचड मे फंसा कि न वह पुडरीक तक पहुँचा और न लौट कर किनारे पर ही आया।।
इसी प्रकार दक्षिण, पच्छिम तथा उत्तर दिशा से क्रमश तीन पुरुष आए और वे सव अपने को कुगल और परिश्रमी समझ कर पुडरीक उखाडने के लिए जल मे प्रविष्ट हुए किन्तु सव के सव दलदल मे फँसते गए। इसके वाद किसी अनियत दिगा से एक वीतराग और पार ससार सागर) करने की इच्छा वाला भिक्षु आया। वह झील के तट पर आकर खडा हुआ और उसने पुडरीक तथा दलदल मे फँसे हुए उन चारो ही पुरुपो को लक्ष्य करके कहा, "अफसोस, अपनी गक्ति और गतिविधि को न जानते हुए ये पुरुष पुडरीक को उखाडने चले परन्तु स्वय ही फंस गए। जो तरीका इन्होने पुडरीक १ आचाराग, २ १५ १७६