________________
द्वितीय अध्याय : आदर्श महापुरुप
[४७ कोई विशेष अवलम्बन न था । पहिले से प्रचलित जैन गुरुओ की परम्परा मे भी वडी शिथिलता आ गई थी। राजनैतिक स्थिति मे किसी प्रकार की एकता न थी। गणसत्तात्मक तथा राजसत्तात्मक राज्य इधर-उधर विखरे हुए थे। यह सव कलह मे जितना अनुराग रखते थे, उतना मेल-मिलाप में नही। प्रत्येक एक दूसरे को कुचल कर अपने राज्य-विस्तार का प्रयत्न करता था।
ऐसी परिस्थिति को देखकर उस काल के कितने ही विचारगील' और दयालु व्यक्तियो का व्याकुल होना स्वाभाविक था। उस दशा को सुधारने की इच्छा, कितने ही लोगो की होती थी। वह सुधारने का प्रयत्न भी करते थे और ऐसे प्रयत्न कर सकने वाले नेता की अपेक्षा रखते थे। ऐसे समय मे महावीर का जन्म हुआ।'
भगवान् पार्श्व के निर्वाण के वाद जैन परम्परा के सबसे प्रवल प्रचारक भगवान् महावीर हुए। वे इस अवसर्पिणी काल के २४ तीर्थकरो मे से सबसे अतिम तीर्थकर थे। आज से कुछ ही दशक पूर्व आधुनिक विद्वान् इस महापुरुष को एक काल्पनिक दैवी विभूति मानते थे। किन्तु जैन-आगम-ग्रन्थो के प्रकाश एव प्रचार मे आ जाने के बाद प्राय सभी पूर्वीय तथा पाश्चात्य विद्वान् इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके है कि भगवान् महावीर एक ऐतिहासिक महापुरुप है।४
महावीर स्वर्ग से अवतरित होकर सवसे प्रथम ऋषभदत्त की पत्नी ब्राह्मणी देवानद के गर्भ मे आए। सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र शक्र ने . ऐसा सोचकर कि तीर्थकर कभी भी ब्राह्मणी के गर्भ से जन्म नही लेते, उन्हे ब्राह्मणी के गर्भ से निकाल कर क्षत्रियाणी त्रिशला के गर्भ मे रख दिया ।५
१ आपस्तम्ब, ३ ९ १५. (जहाँ चाडाल रहता हो, वहाँ वेद नही पढना
चाहिए) , गौतम १२४ ६ (शूद्र यदि वेद का पाठ सुन ले तो उसके कानो मे शीशा गलाकर डाल देना चाहिए, यदि वह वेदोच्चारण करे तो जीभ काट लेना चाहिए।
चार तीर्थकर, पृ ३७ ३. स्थानाग, सूत्र ५३ ४ चैन सूबाज, भाग १, प्रस्तावना पृ० १० ५ माचाराग, २ १५ तथा जैन मुत्राज्, भाग १ (कल्प मूत्र) २ १७-३०