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द्वितीय अध्याय : आदर्श महापुरुष
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अर्हत् अरिष्टनेमि के १८ गण और १८ गणधर थे । उनके सघ मे १८ हजार श्रमण, ४० हजार आर्यिका, १ लाख ६६ हजार उपासक, ३ लाख ३६ हजार उपासिकाएँ तथा अनेक १४ पूर्वज्ञान के धारी, अवधिज्ञानी, मन. पर्ययज्ञानी, केवलज्ञानी, ऋद्धिधारी एव चरमशरीरी साधु, उपाध्याय तथा आचार्य थे । भगवान् अरिष्टनेमि का जीवनकाल एक हजार वर्ष का था, जिसमे वे तीन सौ वर्ष राजकुमार अवस्था मे, ५४ दिन तपस्या में मग्न, और कुछ कम ७०० वर्ष केवली अवस्था मे रहे ।
अवसर्पिणी काल के दुप्पम -सुपमा काल का अधिक भाग व्यतीत हो चुकने पर आषाढ शुक्ला अष्टमी के दिन एक माह का निर्जल उपवास करके गिरनार की चोटी पर ५५६ साधुओं के साथ भगवान् अरिष्टनेमि का निर्वाण हुआ । तब से ८४ हजार ६७६ वर्ष व्यतीत हो चुके है । "
उत्तराध्ययन में “रथनेमीय" नाम का एक प्रकरण है जिसमें भगवान् अरिष्टनेमि के जीवन की उस महान् घटना पर प्रकाग डाला गया है जिसने, उनके जीवन मे एक क्रान्तिकारी परिवर्तन उपस्थित किया और जिसके कारण वे सासारिक मोह-माया को त्याग कर मुक्तिपथ के पथिक वने ।
रथनेमि अरिष्टनेमि के सहोदर लघु भ्राता थे । यह प्रकरण उन्ही के नाम से है क्योकि इसमे मुख्य रूप से उनके जीवन की उस घटना का चित्र उपस्थित किया गया है, जिसमे वे साधुजीवन स्वीकार कर लेने के वाद भिक्षुणी राजीमती (जिनके साथ भगवान् अरिष्टनेमि का विवाह सम्बन्ध निश्चित हुआ था) को देखकर साधुत्व से च्युत होने लगते हैं किन्तु भिक्षुणी द्वारा उपदेश दिए जाने पर पुन साधुत्व में स्थिर हो जाते है ।
यद्यपि अरिष्टनेमि वाल्यकाल से ही आश्रम में प्रवेश करने की उनकी लेशमात्र तो वैराग्य मे डूबे हुए थे, किन्तु अपने चचेरे
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सुसस्कारी थे । गृहस्थभी इच्छा नही थी । वे भाई महाराज कृष्ण के
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जैन सूत्राज्, भाग १ (कल्पसूत्र, लाइफ आफ अरिष्टनेमि )
पृ० २७६- २७६