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जैन अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास भाइयो को सन्ताप दिया। अपने बड़े भाई से दुखी होकर वे सभी अपने पिता भगवान् ऋपभ के निकट पहुंचे, जो कि अप्टापद पर्वत पर स्थित थे और जिन्हे दिव्यज्ञान उत्पन्न हो गया था। पुत्रो ने कहा कि हे भगवन् । भरत हम लोगो से अपनी आजा पालन कराना चाहता है, हमे क्या करना चाहिए? तव भगवान् आदि तीर्थकर ऋषभदेव ने अपने पुत्रो को अग्नि का दृष्टान्त देकर यह उपदेश किया कि जैसे काष्ठ से अग्नि की तृप्ति नहीं होती है उसी प्रकार विपयो का भोग करने से मनुष्य की इच्छानिवृत्ति नही होती है । भगवान् के इस उपदेश का वर्णन सूत्रकताग में है। इसके पश्चात् श्री ऋषभदेव का उपदेग सुनकर उनके निन्यानवे पुत्रो ने ससार को असार, विपयो को कटुफलवाले एव सार रहित आयु को मतवाले हाथी के कान के समान चचल तथा युवावस्था को पहाडी नदी के समान अस्थिर जानकर भगवान् की आज्ञा पालन करने में हो कल्याण है-यह समझ कर उनके पास प्रव्रज्या ग्रहण की।
भगवान् ऋपभ अपने पूर्वजन्म मे चक्रवर्ती राजा थे। उनके जीवन के सम्बन्ध में कल्पसूत्र मे निम्न प्रकार का उल्लेख मिलता है। भगवान् ऋषभ प्रथम जिन, तथा प्रथम तीर्थकर थे। उनका जन्म अगणित वर्ष पूर्व उस अत्यन्त प्राचीन समय में हुआ था, जव कि लोग विल्कुल अशिक्षित तथा जीवन की कलाओ से पूर्ण अनभिज्ञ थे। वे कोगली कहलाते थे, क्योकि उनका जन्म कोगल अर्थात् अयोध्या मे हुआ था। __आसाढ कृष्णा चतुर्थी को स्वर्ग से पृथ्वी पर उनका अवतरण हुआ। उनके पिता का नाम नाभि और माता का नाम मरुदेवी था। उनका जन्मस्थान इक्ष्वाकु-भूमि ( अयोध्या) था। भगवान ऋषभ के पिता कुलकर थे, क्योकि वे ही सबसे प्रथम कुल अर्थात् वंश के
१ सूत्रकृताग, भाग १, प्रथम श्रुतस्कन्ध, द्वितीय अध्ययन २ वही भाग १, प्रथम श्रुतस्कन्ध, द्वितीय अध्ययन की भूमिका.
--(टीकाकार शीलाकाचार्य) ३ समवायाग, सूत्र २३ ।