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[२७ द्वितीय अध्याय : आदर्ग महापुरुष
७ जव हृदय की ग्रन्थि को वनाए रखने वाले मन का वन्धन गिथिल हो जाता है, तव यह जीव ससार से छूटता है और मुक्त होकर परमलोक को प्राप्त होता है।
८ जव वह सार-असार का भेद कराने वाली व अज्ञानान्धकार का नाग करने वाली मेरी भक्ति करता है और तृष्णा , सुख-दु.ख का त्याग कर तत्त्व को जानने की इच्छा करता है, तथा तप के द्वारा सव प्रकार की चेष्टाओ की निवृत्ति करता है, तव मुक्त होता है।
६. जीवो की जो विषयों की चाह है, वही अन्धकूप के समान नरक मे जीव को पटकती है।
१० अत्यन्त कामना वाला तथा नप्टदृष्टि वाला यह जगत अपने कल्याण के हेतुओ को नही जानता है।
११ जो कुबुद्धि सुमार्ग छोड़ कुमार्ग में चलता है, उसे दयालु विद्वान् कुमार्ग में कभी भी नहीं चलने देता।
१२. हे पूत्रो ! सव स्थावर-जगम जीवमात्र को मेरे ही समान समझ कर भावना करना योग्य है।
ये सभी उपदेश जैनधर्म के अनुसार है। इनमे न०४ का उपदे, तो विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है, जो कर्मकाण्ड को वन्ध का कारण वतलाता है। जैनधर्म के अनुसार मन, वचन और काय का निरोध किए विना कर्मवन्धन से छुटकारा नही मिल सकता । किन्तु वैदिक धर्मों में यह वात नही पाई जाती। गरीर के प्रति निर्ममत्त्व होना, तत्त्वज्ञानपूर्वक तप करना, जीवमात्र को अपने समान समझना, कामवासना के फन्दे में न फंसना, ये सव तो वस्ततः जैनधर्म ही है। अत श्रीमद्भागवत के अनुसार जैनधर्म का उदगम श्री ऋपभदेव से हुआ, ऐसा स्पष्ट ध्वनित होता है।'
भगवान् ऋपभ द्वारा अपने पुत्रो को उपदेश देने का प्रसग अगशास्त्र में भी है। सूत्रकृतारा का द्वितीय अध्ययन (प्रथम श्रुतस्कन्ध) इसी उपदेश से भरा है। भगवान् ऋपभदेव के सौ पुत्र थे, जिनमे भरत सबसे ज्येष्ठ थे। भरत ने राज्य-प्राप्ति के बाद अपने निन्यानवे
१. जैनधर्म , पृ० ६-७