________________
द्वितीय अध्याय आदर्श-महापुरुष
चौबीस तीर्थंकर
जैन-परम्परा के अनुसार इस दृश्यमान जगत् मे काल का चक्र सदा घूमता रहता है। यद्यपि काल का प्रवाह अनादि और अनन्त है, तथापि उस काल चक्र के छह विभाग है-१ सुसम-सुसमा (सुषमसुपमा), २ सुसमा ( सुषमा ), ३ सुसम-दूसमा (सुषम-दुषमा), ४ दूसम-सुसमा (दु पम-सुषमा), ५ दूसमा (दुषमा), ६ दूसमदूसमा (दु पम-दु पमा)। ___ जैसे चलती हुई गाडी के चक्र का प्रत्येक भाग नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे जाता है, वैसे ही ये छह भाग भी क्रमवार सदा घूमते रहते है, अर्थात् एक वार जगत सुख से दुख की ओर जाता है और दूसरी वार दुःख से सुख की ओर बढता है। सुख से दुख की ओर जाने को ओसप्पिणी (अवसर्पिणी) या अवनति काल कहते है, और दुख से सुख की ओर जाने को उस्सप्पिणी (उत्सर्पिणी) या विकास-काल कहते है। इन दोनो कालो की अवधि लाखो करोडो वर्षों से भी अधिक है। प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के दुख-सुख रूप भाग मे चौवीस तीर्थकरो का जन्म होता है, जो 'जिन' अवस्था को प्राप्त करके जैन-धर्म का उपदेश देते है। इस समय अवसर्पिणी काल चल रहा है। इस युग के चौवीस तीर्थकरो मे से भगवान् उसभ (ऋपभ) प्रथम तीर्थकर थे और भगवान् वद्धमाण (वर्द्धमान) अर्थात् महावीर अन्तिम तीर्थकर थे ।२ सम
१ स्थानाग, सूत्र ५०. २ नमवायाग, सूत्र २३.