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जैन अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
होने के कारण सम्भवत इस ग्रन्थ का नाम सूत्रकृताग रखा गया होगा।' यही कारण है कि इस अग के सम्बन्ध मे यह परम्परा रखी गई कि साधु-जीवन को स्वीकार करने के वाद चतुर्थ वर्ष मे इस अग का अध्ययन किया जाए। सूत्रो के दुर्जेय होने के कारण विना पूर्व शास्त्राभ्यास के इस ग्रन्थ का अध्ययन करना कठिन होता होगा।
इस अग मे नवदीक्षित श्रमणो को सयम मे स्थिर करने के लिए उपयोगी जैन सिद्धान्त का वर्णन किया गया है। साथ मे तत्कालीन अन्य मतो का निराकरण करके स्वमत की स्थापना भी की गई है। इसमे भूतवादियो का निराकरण करके आत्मा का पृथक् अस्तित्व, ब्रह्मवाद के स्थान मे नानात्मवाद नथा जीव और शरीर को पृथक वताकर कर्म और उसके फल की सत्ता सिद्ध की गई है । जगदुत्पत्ति के विषय मे नानावादो का निराकरण करके "विश्व को किसी ईश्वर ने नहीं बनाया, वह तो अनादि अनन्त है'' इस मत की स्थापना की गई है। तत्कालीन क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अजानवाद का निराकरण करके सुसस्कृत क्रियावाद की स्थापना की गई है।
समवायाग के अनुसार इस अंग में १८० क्रियावादियो के, ८४ अक्रियावादियो के, ६७ अज्ञानवादियो के तथा ३२ विनयवादियो के इस प्रकार कुल ३६३ अन्य-दर्शनो के मतो का खण्डन कर जैन सिद्धान्त का विवेचन किया गया है। इसके अतिरिक्त इसमें जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, सवर, निर्जरा, वन्ध और मोक्ष इन नव पदार्थो की भी व्याख्या की गई है। "प्राचीन भारत के तत्त्वज्ञान के अभ्यासी के लिए सूत्रकृताग मे वर्णित अजैन सिद्धान्त रोचक एव ज्ञानवर्द्धक होगे।"
१ सूत्र का लक्षण 'अल्पाक्षरममदिग्ध सारवद् विश्वनो मुखम् । अस्तोभमनवद्य च सूत्र सूत्रविदो विदु ।”
-~-लघु को० फुट नोट पृ० १४ २ जैनसूत्राज् भाग २, प्रस्तावना, पृ० ३९, फुट नोट न० १ ३ जैन आगम, प० २५, २६ ४ समवायागसूत्र, १३७, तथा नदीसूत्र, ४६ ५ आनन्दशङ्कर बापू भाई ध्रुव, सूत्रकृताग (हि० अ०) पृ० ३, (प्रस्तावना)