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जैन- अगणास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
यहा पर पद का अर्थ 'अर्थबोधक-गव्व' अथवा जिसके अन्त मे विभक्ति हो वह 'पद' किया गया है ।"
अंगशास्त्र की टीकाएँ
अगगास्त्र की टीकाएँ प्राकृत और संस्कृत मे हुई है । प्रावृन टीकाएँ निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णि के नाम से लिखी गई है । निर्युक्ति और भाष्य पद्यमय हे और चूर्णि गद्यमय । उपलब्ध नियुक्तियाँ भद्रवाह द्वितीय की रचनाएँ है । उनका समय विक्रम पाचवी या छठी शताब्दी है । निर्युक्तियो मे भद्रबाहु ने अनेक प्रसंगों पर दार्शनिक चर्चाएँ वडे सुन्दर ढंग से की है ।
किसी भी विषय को चर्चा का यदि अपने समय तक का पूर्णरूप देखना हो तो भाष्य देखने चाहिए । भाष्यकारो मे प्रसिद्ध सवदासगणी और जिनभद्र हैं । इनका समय सातवी शताब्दी है ।
लगभग सातवी-आठवी शताब्दी की चूर्णियाँ मिलती हैं | चूर्णिकारो मे जिनदास अति प्रसिद्ध है । चूर्णियों मे भाष्य के ही विपय को सक्षेप मे गद्य मे लिखा गया है। अगगास्त्र की सबसे प्राचीन संस्कृत टीका आचार्य हरिभद्र ने की है । उनका समय विक्रम ७५७ से ८५७ के वीच का है । हरिभद्र ने प्राकृत चूर्णियों का प्राय संस्कृत मे अनुवाद किया है ।
हरिभद्र के वाद गीलाकसूरि ने दसवी गताव्दी मे संस्कृतटीकाओ की रचना की । इसके बाद प्रसिद्ध टीकाकार अभयदेव हुए, जिन्होने स्थानाग आदि नव अगो पर संस्कृत मे टीकाएँ रची । उनका जन्म विक्रम १०७२ मे और स्वर्गवास विक्रम ११३५ मे हुआ है ।
संस्कृत-प्राकृत टीकाओ का परिमाण इतना बड़ा था और त्रिषयो की चर्चा इतनी गहनतर होती गई कि वाद में यह आवश्यक समझा गया कि आगमा का गव्दार्थ बताने वाली सक्षिप्त टीकाएँ की जाएँ । संस्कृत और प्राकृत वोलचाल की भाषा मे हटकर मात्र साहित्यिक भाषा वन गई थी । अत. तत्कालीन अपभ्रंग अर्थात् प्राचीन गुजराती भाषा मे वालाववोधो की रचना हुई । इन्हे 'टवा' कहते हैं ।
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सुप्तिङन्त पद - पाणिनीय, १४ १४ २ जैन आगम पृ० २६, २७