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________________ प्रथम अध्याय : अंगशास्त्र का परिचय [ १५ बहुत से लोग अर्द्धमागधी की व्युत्पत्ति "अर्धं मागध्या " करके कहते है कि जिसका आधा अश मागधी भाषा हो वह अर्द्धमागधी है क्योंकि नाटकीय अर्द्धमागधी मे मागधी के लक्षण बहुलता से पाए जाते है, इसलिए वह अर्द्धमागधी है । और जैन सूत्रो मे मागधी के लक्षण बहुत कम मिलते है, इसलिए वह अर्धमागधी नही है । परन्तु उनकी यह व्युत्पत्ति भ्रमात्मक एव असंगत है । इसकी वास्तविक व्युत्पत्ति है - " अर्द्ध मगधस्येय " अर्थात् मगध देश के अर्धाश की जो भाषा हो वह अर्द्धमागधी है । इसकी उत्पत्ति पश्चिम मगध अथवा मगध और सूरसेन का मध्य प्रदेश ( अयोध्या आदि) होने पर भी इसमें मागधी और गौरसेनी के इतने लक्षण नही दिखते, जितने महाराष्ट्री के दिखते है । इसका कारण संभवत. श्रमणो का दुष्काल के कारण दक्षिण-गमन एव तद्देशीय भाषा का प्रभाव है । " अंगशास्त्र की पदसंख्या ર प्राचीन पद्धति के अनुसार जैन सूत्रों की पदसंख्या निश्चित करके लिखी गई है । नंदी टीका तथा समवायाग सूत्र के अनुसार जैनसूत्रो की पदसंख्या निम्नप्रकार है. अंगशास्त्र १ आचाराग २. सूत्रकृताग ३ स्थानांग ४ समवायाग ५ व्याख्या - प्रज्ञप्ति ६ ज्ञाताधर्म-कथाग उपासकदगांग अन्तकृद्दशाग ६ अनुत्तरौपपातिकदशाग १० ११ विपाकसूत्र ܟ १ २. प्रश्नव्याकरण मुत्तागमे, पृ० १८, १९ ( प्रस्तावना ). समवायाग, १३६-१४७. पदसंख्या १,००० ३६,००० ७२,००० १,४४,००० २,८८,००० ५,७६,००० ११,५२-००० २३,०४,००० ४६,०८,००० ८२,१६,००० १,८४,३२,०००
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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