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प्रथम अध्याय : अंगशास्त्र का परिचय
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बहुत से लोग अर्द्धमागधी की व्युत्पत्ति "अर्धं मागध्या " करके कहते है कि जिसका आधा अश मागधी भाषा हो वह अर्द्धमागधी है क्योंकि नाटकीय अर्द्धमागधी मे मागधी के लक्षण बहुलता से पाए जाते है, इसलिए वह अर्द्धमागधी है । और जैन सूत्रो मे मागधी के लक्षण बहुत कम मिलते है, इसलिए वह अर्धमागधी नही है । परन्तु उनकी यह व्युत्पत्ति भ्रमात्मक एव असंगत है । इसकी वास्तविक व्युत्पत्ति है - " अर्द्ध मगधस्येय " अर्थात् मगध देश के अर्धाश की जो भाषा हो वह अर्द्धमागधी है । इसकी उत्पत्ति पश्चिम मगध अथवा मगध और सूरसेन का मध्य प्रदेश ( अयोध्या आदि) होने पर भी इसमें मागधी और गौरसेनी के इतने लक्षण नही दिखते, जितने महाराष्ट्री के दिखते है । इसका कारण संभवत. श्रमणो का दुष्काल के कारण दक्षिण-गमन एव तद्देशीय भाषा का प्रभाव है । "
अंगशास्त्र की पदसंख्या
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प्राचीन पद्धति के अनुसार जैन सूत्रों की पदसंख्या निश्चित करके लिखी गई है । नंदी टीका तथा समवायाग सूत्र के अनुसार जैनसूत्रो की पदसंख्या निम्नप्रकार है.
अंगशास्त्र
१ आचाराग
२. सूत्रकृताग
३ स्थानांग
४ समवायाग
५
व्याख्या - प्रज्ञप्ति
६ ज्ञाताधर्म-कथाग
उपासकदगांग
अन्तकृद्दशाग ६ अनुत्तरौपपातिकदशाग
१०
११ विपाकसूत्र
ܟ
१
२.
प्रश्नव्याकरण
मुत्तागमे, पृ० १८, १९ ( प्रस्तावना ).
समवायाग, १३६-१४७.
पदसंख्या
१,०००
३६,०००
७२,०००
१,४४,०००
२,८८,०००
५,७६,०००
११,५२-०००
२३,०४,०००
४६,०८,०००
८२,१६,०००
१,८४,३२,०००