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अष्टम अध्याय : उपसहार
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बुद्धिग्राह्य नही है क्योकि शास्त्रो मे लिखा है कि आत्मा त्रिगुणातीत, बाह्य तथा आभ्यन्तर सुख-दुखो के प्रभाव से परे है, अतः वह किस कारण कर्मवद्ध' होगा? और जिसका बन्धन ही नही है, उसके छूटने की वात ही कहाँ ? इस कारण जो अवद्ध होगा, वह संसार मे भ्रमण भी किस लिए व क्यो करेगा ?
महावीर ने उत्तर दिया कि, “उक्त श्रुतिवाक्य मे जो आत्मा के स्वरूप का वर्णन है, वह केवल सिद्ध आत्माओ पर ही लागू होता है; संसारी आत्माओ पर नही ।"
मंडितपुत्र ने पुन प्रश्न किया, "सिद्ध और संसारी यों दो प्रकार की आत्माओं की कल्पना करने की अपेक्षा सभी आत्माओ को केवल कर्ममुक्त सिद्धस्वरूप मान लिया जाए तो क्या आपत्ति है ?"
महावीर बोले-- “ संसारी आत्माओ को कर्मरहित मान लेने पर जीवो मे जो कर्मजन्य सुख-दुख के अनुभव का व्यवहार होता है, वह निराधार सिद्ध होगा । मैं सुखी हूँ दुःखी हू, इत्यादि व्यवहार का आधार जीवो के कर्मफल माने जाते है । यदि हम जीवो को कर्मरहित मान लेंगे तो इस सुख-दुख का कारण क्या माना जाएगा ? आत्मा का शरीर अथवा अन्त. करण के साथ जो घनिष्ठ संबंध है उसी को हम "वंघ" कहते है । आत्मा स्वरूप से उज्ज्वल है, इसमे कोई विरोध नही; पर जब तक वह कर्मबन्धयुक्त है, शरीरधारी है, तव तक कर्मफल से मलिन है । इस मलिन प्रकृति के कारण वह नवीन-नवीन कर्म बाँधता रहता है और उन कर्मो के अनुसार ऊँच-नीच गतियो मे भटकता है, यही इसका ससार - परिभ्रमण है । जव तक आत्मा को ससार से मुक्त होने का साधन प्राप्त नही होता, तव तक वह चातुर्गतिक संसार मे भटकता रहता है और अपने कर्मो का फल भोगता रहता है । जिस समय इसे गुरु के द्वारा अथवा स्वयं मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है, तव यदि मुक्ति
१. " तस्मान्न वध्यते, नापि मुच्यते, नापि ससरति कश्चित्, ससरति, वच्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृति." सास्यकारिका, ६२