________________
अष्टम अध्याय उपसंहार
जैनपरस्परा में मानवीय विकास की रूपरेखा
आत्मा अपनी स्वाभाविक परिणति से शुद्ध है, निर्मल है, विकाररहित है, परन्तु कपायमूलक वैभाविक परिणति के कारण वह अनादिकाल से कर्मवन्धन मे जकडा हुआ है। यह सभी अनुभव करते है कि प्राणी सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, किसी न किसी प्रकार की कपायमूलक हलचल किया ही करता है। यह हलचल ही कर्मबन्ध की जड है । अत सिद्ध है कि कर्म, व्यक्तिश अर्थात किसी एक कर्म की अपेक्षा से आदि वाले है परन्तु कर्मरूप-प्रवाह की अपेक्षा से अनादि है । भूतकाल की अनन्त गहराई मे पहुँच जाने के बाद भी ऐसा कोई प्रसग नही मिलता; जव कि आत्मा पहिले सर्वथा शुद्ध रहा हो और वाद मे कर्मस्पर्श के कारण अशुद्ध बन गया हो। यदि कर्मप्रवाह को आदिमान मान लिया जाय तो प्रश्न होता है कि विशुद्ध आत्मा पर विना कारण अचानक ही कर्ममल लग जाने का क्या कारण है ? विना कारण के कार्य तो होता नही है । और यदि सर्वथा दृश्य आत्मा भी विना कारण के यो ही व्यर्थ कर्ममल से लिप्त हो जाता है तो फिर जप-तप आदि की अनेकानेक कठोर साधनाओ के बाद मुक्त हुए जीव भी पुनः कर्मलिप्त हो जायेंगे।
एक बार महावीर के शिष्य मंडित-पुत्र ने उनसे प्रश्न किया कि, "कर्मों से वधमोक्ष तथा आत्मा का नये-नये रूपो मे ससार मे भटकना
१. सामायिकसूत्र, पृ० २६ ।