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जैन-अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
सोते थे। विद्यार्थी भूल से किए गए अपराधों का प्रायश्चिन भी करते थे।
जैनसंस्कृति के विद्यार्थी ऊन, रेशम, क्षोम, सन, ताडपत्र मादि के वने हुए वस्त्रो के लिए गृहस्थ से याचना करते थे। वे चमड़े के वस्त्र या वहूमल्य रल या स्वर्णजटित अलंकृत वस्त्रो को ग्रहण नहीं करते थे। हटटे-कटटे विद्यार्थी केवल एक और भिक्षुणियाँ चार वस्त्र पहिनती थी।२
शिक्षक का व्यक्तित्व-ऋगवैदिक आचार्य, जिसके दिव्य प्रतीक अग्नि और इन्द्र है, तत्कालीन ज्ञान और आध्यात्मिक प्रगति की दृष्टि से समाज मे सर्वोच्च व्यक्ति थे । आचार्य विद्यार्थी को ज्ञानमय शरीर देता था। वह स्वयं ब्रह्मचारी होता था और अपने ब्रह्मचर्य की उत्कृष्टता के बल पर असंख्य विद्याथियो को आकर्षित कर लेता था।
जनशिक्षण के आचार्यो पर महावीर और उनके पूर्ववर्ती तीर्थ करो की छाप रही है। वे अपना जीवन और शक्ति मानवता को सन्मार्ग दिखाने के प्रयत्न मे ही लगा देते थे ।५ ___ आचार्य के आदर्श व्यक्तित्व की जनसंस्कृति मे जो रूपरेखा आगे बनी वह इस प्रकार थी-"वह सत्य को नही छिपाता था और न उसका प्रतिवाद करता था। वह अभिमान नही करता था और न यश की कामना करता था । वह कभी भी अन्य धर्मो के आचार्यों की निन्दा नही करता था । सत्य भी कठोर होने पर उसके लिए त्याज्य था। वह सदैव सद्विचारों का प्रतिपादन करता था। शिष्य को डॉट-डपट कर या अपशब्द कह कर वह काम नही लेता था। वह धर्म के रहस्य को पूर्णरूप
१ उत्तराध्ययन, २६ । २ आचाराग, २,५, १, १। ३ अथर्ववेद, ११, ५, ३ । ४ वही, ११, ५, १६ । ५. आचाराग, १, ६, ५, २-४ ।