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________________ सप्तम अध्याय : ब्राह्मण तथा श्रमण-संस्कृति [ २२३ प्रजापति, सरस्वती, अश्विनीद्वय आदि देवताओ की आराधना करके गर्भस्थ बालक के कल्याण तथा उसके पुत्ररूप मे उत्पन्न होने की कामना की जाती थी । दसवें या बारहवे दिन नामकरण संस्कार द्वारा पुत्र का नाम रखा जाता था। पौराणिकयुग मे यह संस्कार शिशु के लगभग ६ माह का हो जाने पर होता था । इसके बाद उत्पत्ति के चतुर्थमास में शिशु को चन्द्र-सूर्य के दर्शनार्थ घर से बाहर निकाल कर निष्क्रमण-संस्कार किया जाता था । छठे मास मे शिशु को दही, मधु तथा घी चटा कर अन्नप्राशन संस्कार किया जाता था । इसके वाद प्रथम अथवा तृतीय वर्ष मे केशकर्तन तथा चूडास्थापना द्वारा चौलसंस्कार होता था । जनसूत्रो मे सबसे प्रथम संस्कार गर्भाधान माना गया है। इसके बाद द्वितीय संस्कार जातकर्म है, जो पुत्रोत्पत्ति के प्रथम दिन किया जाता था । गर्भकाल मे भी माता-पिता द्वारा पुत्र की सुरक्षा के लिए पर्याप्त सावधानी रखी जाती थी। ऐसा कहा गया है कि गर्भिणी को सावधानी से उठना बैठना, सोना तथा चलना चाहिए और उसे भोजन भी अत्यन्त स्वास्थ्यकर ग्रहण करना चाहिए | 3 जातकर्म–संस्कार मे प्रथम दिन पुत्र की नाल काट कर पृथ्वी में गाड़ दी जाती थी । द्वितीय दिन "जागरिका" उत्सव मनाया जाता था, जिसमे रात्रिभर जाग कर लोग आनन्द मनाते थे । तृतीय दिन "चन्द्रसूर्यदर्शनिका" उत्सव होता था। जिसमे बहुत उल्लास के साथ नवोत्पन्न पुत्र को चन्द्र-सूर्य के दर्शन कराये जाते थे । इसके बाद लगातार ७ दिन तक हर्षोल्लास मनाया जाता था । ११ वे दिन "शुचिकर्म” (गृहशुद्धि) होता था और १२वे दिन पिता सुन्दर वस्त्र एव अलकारो को धारण कर समस्त मित्र, कुटुम्वीजन, तथा निकटजनो को अपने घर पर बुलाता था। घर पर बहुत मात्रा मे विशिष्ट भोजन तैयार किया जाता था और सभी आगन्तुक जनो को भोजनपान द्वारा संतुष्ट करके उनके समक्ष पुत्र का नामकरण संस्कार होता था । ४ १ ऋग्वेद, १०, १८४ । भागवत, १०, ८, ६ । ३ नायाम्म कहाओ १, १६, तथा भगवती, ११, ११ । ४ वही १, २० ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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