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जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
संस्कार--ब्राह्मण संस्कृति मे मानवव्यक्तित्व के विकास के लिए संरकारो को अत्यधिक आवश्यक माना गया है । संस्कार का साधारण अर्थ है-किसी वस्तु को ऐसा रूप देना, जिसके द्वारा वह अधिक उपयोगी बन सके ।' प्रत्येक सस्कार के समय प्रायः देवताओ के समक्ष शुद्ध, संस्कृत और उच्च भावी-जीवन की प्रतिज्ञा की जाती रही है क्योकि वैदिक पुरुपो की ऐसी धारणा थी कि किसी मनुष्य को अपने व्यक्तित्व का विकास करने के लिए देवताओ की सहायता लेना अपेक्षित है। जैनसस्कृति मे धार्मिक दृष्टि से सस्कारो की कोई महत्ता स्वीकार नही की गई, क्योकि संस्कारो का संबंध मुख्यतया शरीर मे है और जैन सस्कृति शरीरनिरपेक्ष, आत्मसस्कृति है।'
यद्यपि जैनागम मे अनेक जगह ऐसे प्रकरण उपलब्ध होते है, जो कि हमे "संसार" की ओर संकेत करते है, किन्तु उनका महत्व केवल सामाजिक है । धार्मिक नही।
ब्राह्मण,-धर्मशास्त्रो मे संस्कारो की संख्या बहुमत से १६ मानी गई है-१ गर्भाधान, २ पु सवन, ३. सीमन्तोन्नयन, ४ विष्णुवलि, ५ जातकर्म, ६ नामकरण, ७ निष्क्रमण, ८ अन्नप्राशन, ६ चौल, १० उपनयन, ११-१४ चार वेदवत, १५ समावर्तन तथा १६ विवाह ।'
जातकर्म तक के पाँच संस्कार पुत्र के जन्म से सम्बन्ध रखते है। इन सस्कारो मे गर्भस्थिति से लेकर पुत्रोत्पत्ति तक विष्णु, त्वष्टा,
१ "संस्कारो नाम स भवति यस्मिन जाते पदार्थो भवति योग्य. कस्य
चिद् अर्थस्य ।" जैमिनीसूत्र, ३, १, ३, (शवरटीका)। सूत्रकृताग १, २, १, १४ । “जैसे लेप वाली भित्ति लेप गिरा कर कृश करदी जाती है, इसी तरह अनशनादि रूप के द्वारा शरीर को कृश करके अहिंसाधर्म का पालन करना चाहिए।" गौतम (८, १४-२४) के अनुसार सस्कारो की संख्या ४० है, जिनमे प्रधान सस्कारो के अतिरिक्त ५ दैनिक महायज्ञ, ७ पाकयज्ञ, ७ हवियज्ञ, ७ सोमयज्ञो की गणना की गई है। वैखानस के अनुसार १८ शरीर सस्कार हैं। अगिरा ने सस्कारो की संख्या २५ बताई है। मनु, याज्ञवल्क्य और धर्मसूत्रकार विष्णु के अनुसार गर्भाधान से अन्त्येष्टि तक १६ सस्कार है।