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जैन-अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
ने भी वाह्मण-श्रमण उदाहरण देकर पतजंलि के अनुभव की यथार्थता पर मुहर लगाई है।'
परस्पर प्रभाव और समन्वय-ब्राह्मण और श्रमण-परम्परा परस्पर एक दूसरे के प्रभाव से विलकुल अछूती नही है। छोटी-मोटी अनेक वातो मे एक का प्रभाव दूसरे पर न्यूनाधिक मात्रा मे पडा हुआ देखा जाता है । उदाहरणार्थ, श्रमणधर्म की साम्यदृष्टिमूलक अहिंसाभावना का ब्राह्मणपरम्परा पर क्रमश इतना प्रभाव पड़ा कि जिससे यज्ञीय-हिंसा का समर्थन केवल पुरानी शास्त्रीय चर्चाओं का विषयमात्र रह गया और और व्यवहार मे यज्ञीय-हिसा लुप्त-सी हो गयी । अहिंसा व 'सर्वभूतहिते रत' सिद्धान्त का पूरा आग्रह रखने वाली साख्य, योग औपनिषद्, अवधूत आदि जिन परम्पराओ ने ब्राह्मण-परम्परा के प्राणभूत वेदविपयक प्रामाण्य और ब्राह्मणवर्ग के पुरोहित व गुरुपद का आत्यंतिक विरोध नहीं किया; वे परम्पराएँ क्रमश ब्राह्मण धर्म के सर्वसंग्राहक क्षेत्र मे एक या दूसरे रूप मे मिल गई है। इसके विपरीत जैन, बौद्ध आदि जिन परम्पराओ ने वैदिकप्रामाण्य और ब्राह्मण वर्ण के गुरुपद के विरुद्ध आत्यंतिक आग्रह रक्खा, वे परम्पराएं यद्यपि सदा के लिए ब्राह्मणधर्म से अलग ही रही है। फिर भी उनके शास्त्र एव निवृत्तिधर्म पर ब्राह्मणपरम्परा की लोकसग्राहक वृत्ति का एक या दूसरे रूप मे प्रभाव अवश्य पड़ा है ।२ उभय संस्कृतियों की तुलना
मानवजीवन का उद्देश्य-वैदिक दृष्टिकोण से मानवजीवन का एकमात्र यही उद्देश्य माना गया कि मानव अपने जीवनकाल मे अधिक से अधिक सुख या आनन्द प्राप्त करे और जीवन के पश्चात् उसे स्वर्ग अथवा मुक्ति की प्राप्ति हो । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सर्वप्रथम, मानवजीवन के दीर्घायु होने की आवश्यकता प्रतीत हुई । ऋपियो ने १०० वर्ष के कर्मठ जीवन की कल्पना की थी। १०० वर्प के जीवन मे पूर्ण आनन्द की प्राप्ति के लिए आवश्यक था कि शरीर स्वस्थ रहे और
१ मिद्धहैमव्याकरण, ३, १, १४१ । २ जैनधर्म का प्राण, पृ० ४ । ३. ऋपियो की वाणी है-"कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समा."