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सप्तम अध्याय ब्राह्मण तथा श्रमण-संस्कृति
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श्रमणधर्म का अंतिम साध्य ब्राह्मण धर्म की तरह अभ्युदय न होकर निःश्रेयस है । नि यस का अर्थ है - ऐहिलौकिक तथा पारलौकिक नानाविध लाभो का त्याग करने वाली ऐसी स्थिति, जिसमे पूर्ण साम्य प्रकट होता है । और कोई किसी से कम योग्य या अधिक योग्य नही रहने पाता । जीवजगत् के प्रति श्रमणधर्म की दृष्टि पूर्ण आत्म- साम्य की है । जिसमे न केवल पशु-पक्षी आदि जन्तुओ का ही समावेश होता है, अपितु वनस्पति जैसे अतिक्षुद्र जीववर्ग का भी समावेश होता है । ' इसमे किसी भी देहधारी का किसी भी निमित्त से किया जाने वाला वध आत्मवध जैसा ही माना गया है। नि श्रेयस के साधनो मे अहिंसा मुख्य है । किसी भी प्राणी का किसी भी प्रकार से हिसा न करना समस्त प्राणियो को आत्मवत् समझना यही निश्रेयस का मुख्य साधन है । जिसमे अन्य सब साधनो का समावेश हो जाता है । यह साधनगत साम्यदृष्टि हिंसाप्रधान यज्ञयागादि कर्म की दृष्टि से विलकुल विरुद्ध है । इस तरह ब्राह्मण और श्रमणधर्म का वैषम्य और साम्यमूलक इतना विरोध है, कि जिससे दोनो धर्मो के वीच पद-पद पर संघर्ष की संभावना रही है, जो सहस्रो वर्षों के इतिहास में लिपिबद्ध है । यह पुराना विरोध ब्राह्मणकाल मे भी था और बुद्ध एव महावीर के समय मे भी, तथा इसके वाद भी । इसी चिरंतन विरोध के प्रवाह को महाभाष्यकार पतजलि ने अपनी वाणी मे व्यक्त किया है । वैयाकरण पाणिनि ने सूत्र मे शाश्वत विरोध का निदर्शन किया है, पतजलि " शाश्वत " - जन्म - सिद्धविरोध वाले अहि-नकुल गोव्याघ्र जैसे द्वन्द्वो के उदाहरण देते हुए साथ-साथ ब्राह्मण श्रमण का भी उदाहरण देते है। पतंजलि से अनेक शताब्दियों बाद होने वाले जैनाचार्य हेमचन्द्र
१ सभी प्राणियो को जीवन प्रिय है, सुख अच्छा लगता है, तथा दुख प्रतिकूल है ।" आचाराग, १, २, ३ ।
२. " जो मुनि वनस्पति की हिंसा को जानता है वह सच्चा कर्मन है ।" आचारांग १, १,४५-४७ ।
" जो अपना दुख जानता है, वह बाहर का दुख जानता है और जो बाहर का दुख जानता है, वह अपना दुख जानता है ।" आचारांग १, १, ५५ ।
तुम वही हो, जिसे तुम मारना चाहते हो, पीडा देना चाहते हो, पकडना चाहते हो 'आचारांग श्रु ९
३ महाभाष्य २, ४,
है।