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जैन- अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास
का त्याग करना रस - परित्याग है । धर्मसाधना के लिए विविध आसनादि द्वारा समभावपूर्वक शारीरिक कष्ट सहना कायक्लेश हे । विपयो व कपाय से आत्मरक्षा करने हेतु बाधारहित एकान्त स्थान में रहना प्रतिसलीनता है । "
कायक्लेश के ७ भेद है ।
आभ्यन्तरतप-जिन तपो मे मानसिक क्रिया की प्रधानता हो और जो मुख्यरूप से वाह्यद्रव्यो की अपेक्षा न रखने के कारण दूसरो को न दिख सके, वे आभ्यन्तरतप है ।
१ स्थानायतिक ( शरीर को भूमि पर पूर्णरूप से फैला देना) २ उत्कटुकासनिक ( उकडू बैठना )
३ प्रतिमास्थायी (प्रतिमा की तरह निश्चल रहना)
४ वीरासनिक ( सिंहासन पर बैठे हुए के समान आसन लगाना) ।
५. नॅपधिक (पैरो को बराबर करके रखना)
६ दडायतिक (दड की तरह देह को फैलाना)
७ लगण्डशायी ( इस प्रकार शयन करना कि पीठ पृथ्वी को न छुए)
आभ्यन्तरतप के छह भेद है
- १ प्रायश्चित्त, २. विनय ३ क्यावृत्य ४. स्वाध्याय ५ ध्यान ६ उत्सर्ग |
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प्रायश्चित - धारण किए हुए व्रत मे प्रमादजनित दोपो का जिससे शोधन किया जा सके; वह प्रायश्चित्त है । इसके छह भेद है - १ आलोचना २ प्रतिक्रमण, ३ तदुभय, ४ विवेक, ५ व्युत्सर्ग, ६ तप ।
गुरु के समक्ष शुद्धभाव से अपने अपराध को प्रकट कर देना, आलोचना है | दंडग्रहण कर गत अपराध से निवृत्त होना तथा भविष्य मे अपराध न हो, ऐसी सावधानी रखना प्रतिक्रमण है । एक ही अपराध के लिए आलोचना तथा प्रतिक्रमण करना, तदुभय है । भोजन करते समय यदि अभोज्यवस्तु प्राप्त हो जाय, तो समझ कर उसका त्याग
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समवायाग, ६
वही, ६ ।
स्थानाग, १९६, ४८९ ।