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________________ १६८ ] जैन- अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास का त्याग करना रस - परित्याग है । धर्मसाधना के लिए विविध आसनादि द्वारा समभावपूर्वक शारीरिक कष्ट सहना कायक्लेश हे । विपयो व कपाय से आत्मरक्षा करने हेतु बाधारहित एकान्त स्थान में रहना प्रतिसलीनता है । " कायक्लेश के ७ भेद है । आभ्यन्तरतप-जिन तपो मे मानसिक क्रिया की प्रधानता हो और जो मुख्यरूप से वाह्यद्रव्यो की अपेक्षा न रखने के कारण दूसरो को न दिख सके, वे आभ्यन्तरतप है । १ स्थानायतिक ( शरीर को भूमि पर पूर्णरूप से फैला देना) २ उत्कटुकासनिक ( उकडू बैठना ) ३ प्रतिमास्थायी (प्रतिमा की तरह निश्चल रहना) ४ वीरासनिक ( सिंहासन पर बैठे हुए के समान आसन लगाना) । ५. नॅपधिक (पैरो को बराबर करके रखना) ६ दडायतिक (दड की तरह देह को फैलाना) ७ लगण्डशायी ( इस प्रकार शयन करना कि पीठ पृथ्वी को न छुए) आभ्यन्तरतप के छह भेद है - १ प्रायश्चित्त, २. विनय ३ क्यावृत्य ४. स्वाध्याय ५ ध्यान ६ उत्सर्ग | , प्रायश्चित - धारण किए हुए व्रत मे प्रमादजनित दोपो का जिससे शोधन किया जा सके; वह प्रायश्चित्त है । इसके छह भेद है - १ आलोचना २ प्रतिक्रमण, ३ तदुभय, ४ विवेक, ५ व्युत्सर्ग, ६ तप । गुरु के समक्ष शुद्धभाव से अपने अपराध को प्रकट कर देना, आलोचना है | दंडग्रहण कर गत अपराध से निवृत्त होना तथा भविष्य मे अपराध न हो, ऐसी सावधानी रखना प्रतिक्रमण है । एक ही अपराध के लिए आलोचना तथा प्रतिक्रमण करना, तदुभय है । भोजन करते समय यदि अभोज्यवस्तु प्राप्त हो जाय, तो समझ कर उसका त्याग १. २ ३ समवायाग, ६ वही, ६ । स्थानाग, १९६, ४८९ ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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